भरतजी को मूर्छा आई है। थोड़े स्वस्थ उन्होंने कौशल्या से पूछा -मेरे राम कहाँ है? इस सब अनर्थ का मूल मै हूँ। कैकेयी के वरदान में यदि मेरी रंच मात्र भी सम्मत्ति है तो मुझे मातृ-पितृ हत्या का फल मिले।
कौशल्या -बेटा,धीरज रख। शोक का त्याग कर। राम तो हँसते हुए वन में गए। तेरे पिता ने प्राणत्याग किया।
मेरे भाग्य ही रूठा हुआ है। मै ही इस अनर्थ का कारण हूँ। मेरे प्राण क्यों नहीं जाते।
दूसरे दिन प्रातःकाल में सरयू नदी के किनारे महाराज दशरथ के पार्थिव देह का अग्नि संस्कार किया गया।
ऐसा लिखा है कि दशरथ राजा की आज्ञा थी कि अगर राम को वनवास देने में भरत की सम्मत्ति थी तो उसके हाथों अग्निसंस्कार मत कराना।
सभी अंतिम संस्कार भरत ने किये है। रानियों को सती होने से भरत ने रोका है।
पंद्रह दिन बाद शोकसभा का आयोजन हुआ। वसिष्ठ सहित कई ऋषि भी वहाँ उपस्थित थे।
सबसे पहले वसिष्ठजी ने भाषण दिया। उन्होंने दशरथ और राम की खूब तारीफ़ की।
और फिर भरत का राज्याभिषेक करने का निश्चय किया।
भरत को यह बात स्वीकार नहीं थी। उन्हें बहुत समझाया गया। राम-सीता के स्मरण से उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। भरतजी का भाषण अति दिव्य है। भरतजी का वर्णन करते तुलसीदासजी को “समाधि “लगी है।
राजा दशरथ की शोकसभा में भरत खड़े हुए है। गुरुदेव वसिष्ठ के चरण में वंदन करते है और बोले -
गुरुदेव की और माता की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। सभी की इच्छा है कि मेरा राजयभिषेक होना चाहिए। पर आज मै जवाब देता हूँ कि मुझे क्षमा करो। मै अयोध्या की प्रजा से पूछता हूँ कि मेरा राज्याभिषेक होने से उनको क्या लाभ होगा?मैंने मेरे मन से निश्चय किया है कि -
राम सेवा से ही मेरा कल्याण होगा। राम सेवा ही मेरा जीवन है।
मै राम की सेवा करने जाउँगा। पिताजी स्वर्ग में और राम वन में है। ऐसे समय में मेरा राज्याभिषेक करने से क्या मै सुखी रहूँगा? सर्व अनर्थ का कारण मै हूँ। जो जगत में मेरा जन्म ही नहीं होता तो यह अवसर कभी नहीं आता।
मेरे जन्म से अयोध्या की प्रजा दुःखी हुई है। आज मेरे पिता स्वर्ग में गए उसका मुझे दुःख नहीं है पर राम वल्कल पहनकर नंगे पाँव वन में घूम रहे है उसका मुझे बहुत दुःख है। राम के बिना जिंदगी में सब व्यर्थ है।
मुझे राम-सीता के दर्शन करने से ही शांति मिलेगी। मै राम की सेवा करू तभी मेरा जीवन सफल है।
यह अयोध्या का पवित्र राज्यासन है कि जहॉ कभी महाराज भगीरथ,रघुराजा और दिलीप विराजते थे।
आज मेरा भाग्य प्रतिकूल है इसलिए गुरूजी मुझे राज्यासन की सलाह दे रहे है।
पर मेरा कल्याण तो राम सेवा में ही है।
मै कल राम को मिलने जा रहा हूँ। मुझे आज्ञा दो। मुझे आशीर्वाद दो कि मेरे राम वापस अयोध्या पधारे।
मै मेरे पाप की माफ़ी माँगूंगा तो वे मुझे क्षमा करेंगे। राज्य के मालिक तो राम है। मै उन्हें मनाउँगा।
राम -सीता वापस आये तो मै चौदह वर्ष वन में रहूँगा। सर्व अनर्थ का कारण मै हूँ।
कैकेयी का बेटा जानकार भी वे मेरा तिरस्कार नहीं करेंगे। उन्हें मुझपर अति प्रेम है।
बचपन में भी उन्होंने मुझे कभी नाराज नहीं किया है।
राम-सीता का स्मरण करते हुए भरत की आँखों से आँसू बह रहे थे।
जनता को विश्वास हो गया कि भरतजी प्रेम की मूर्ति है।
सभी राम के दर्शन के लिए भरतजी के साथ जाने की तैयारी करने लगे।
नगर के वृध्द,स्त्री-पुरुष सभी रामजी के दर्शन के लिए आतुर थे।
सभी के मन में एक ही भाव था कि कब प्रातःकाल हो और कब हम वन की ओर चले।