सभी को नाँव द्वारा गंगा पार कराया है। गंगापार करने के बाद भरतजी ने कहा -यहाँ से रामजी चलते गए है। इसलिए मै भी रथ में नहीं बैठूँगा। मै यहाँ से चलता जाऊँगा।
मेरे राम चलकर गये और मै रथ में बैठू तो मुझे पाप लगेगा।
वसिष्ठजी समझ गए है कि भरतजी को ज्यादा आग्रह करने से दुःखी होंगे। सभी के रथ आगे चले है।
पीछे भरत,शत्रुघ्न और गृहक चलकर जा रहे है। भरत की दशा दयाजनक है।
वे शत्रुघ्न के कन्धे के सहारे,हे राम-हे राम बोलते हुए आगे बढ़ रहे है।
धन्य है भरत को! पिताजी से प्राप्त राज्य को अस्वीकार किया और बड़े भाई को मनाने जा रहे है
उनके पाँव में छाले पड़ गए है,सिर पर छाता नहीं है,तेज धूप है। वे तो बस राम में तन्मय है।
वे अब प्रयागराज आये है। त्रिवेणी संगम में स्नान किया है। त्रिवेणी संगम में गंगा-जमुना का संगम होता है।
ज्ञान और भक्ति का या मधुर मिलन है। यमुनाजी श्याम और गंगाजी गौर है,सरस्वती गुप्त है।
प्रयाग तीर्थो का राजा है। यहाँ के मुख्य मालिक-अधिष्ठाता देव माधवराय है। भरद्वाज मुनि का आश्रम यहाँ है।
प्रजा ने कहा -भरद्वाज ऋषि के आश्रम में जाना चाहिए।
भरतजी ने कहा -कैकेयी ने मेरे मुख पर कालिमा पोत दी है। मै सन्तो को अपना मुँह कैसे दिखाऊ?
पर,तीर्थो का नियम है कि जब तक वहाँ साधु-संतो का संग न किया जाए,तब तक तीर्थयात्रा सफल नहीं होती।
भरतजी भरद्वाज मुनि के आश्रम में आए। मुनि ने भरतजी से कहा कि -शोक न करो। यह सब तो ईश्वर की लीला है। तुम तो बड़े भाग्यशाली हो। रामचन्द्रजी तुम्हे प्रतिदिन याद करते है कि तुम्हारा जैसा कोई भाई नहीं है। भातृप्रेम का आदर्श स्थापित करने आज तुम रामजी को मनाने जा रहे हो, यह अच्छी बात है।
कई साल हमे तपस्या की उसके फलरूप से हमे राम के दर्शन हुए है। सर्व साधन का फल है राम दर्शन।
पर रामजी के दर्शन का फल -जो कोई हो तो वह है भरतजी के दर्शन।
भरतजी की दास्य-भक्ति है। भरतजी बहुत भाग्यशाली है कि उन्हें राम हररोज याद करते है। जीव ईश्वर का स्मरण करे वह स्वाभाविक है। पर जब ईश्वर जीव को चिंतन करे तो उस जीव का जीवन धन्य है।
भरद्वाज ऋषि ने भरत से कहा -राक्षसों का संहार करने के हेतु से रामजी ने ये सारी लीला रचाई है।
अतः तुम शोक मत करो। तुम्हारा स्वागत करना हमारा धर्म है। आज की रात आप सब यहाँ रहो।
भरद्वाज ने अणिमा आदि रिद्धि -सिद्धि का आवाहन कियाऔर हजारों सेवक और मकान खड़े किये है।
भरद्वाज ने कभी सिद्धि के उपयोग नहीं किया था पर आज उन्हें रामभक्तो का स्वागत करना था।
जिसे जो अच्छा लगे ऐसा भोजन दिया है। सभी का भाव से भव्य स्वागत किया है।
रामजी के दर्शनार्थी का भली-भाँति स्वागत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
रात्रि में भरद्वाज भरत की परीक्षा करने निकले है। तो उन्होंने देखा कि भरतजी ने दर्भासन बिछाकर
आसन किया है और नासिका पर दृष्टि स्थिर करके राम-सीता का जप कर रहे है।
दासियाँ भरतजी के मनाती है की आप भोजन कर लो। भरतजी ने हाथ जोड़कर कहा -मेरे राम कंदमूल खाते है।
मुझे भोजन नहीं करना। उन्हें आराम करने को कहा। पर भरतजी को तो राम-दर्शन की आतुरता है।
फुरसद नहीं है। मुझे मेरे राम मिलेंगे फिर मुझे आराम मिलेगा।