Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-280


वशिष्ठजी ने कहा -तुम्हारा स्मरण करते   हुए दशरथजी ने देहत्याग किया है। आपके वियोग में वे जी नहीं सके। रामजी विलाप करते है। “मेरे पर पिताजी का कितना प्रेम  था कि मेरा स्मरण करते हुए उन्हें प्राण त्याग दिए।”

रामजी ने पिताजी के मृत्यु के समाचार सुनने के बाद उनका श्राद्ध किया है।
दशरथजी के पीछे पिंडदान करने की जरुरत नहीं है-क्योकि उन्होंने अंतिम साँस तक राम का स्मरण किया था। फिर भी,जगत को आदर्श बताने के लिए -रामजीने श्राध्द किया है।

रामजी के सेवा में चित्रकूट के सभी वृक्ष में फल आये है।
भील लोगो ने अयोध्या की प्रजा का फल से स्वागत किया है। अयोध्या के लोग उन्हें भेंट देने लगे पर वे नहीं स्वीकारते। भील लोगों ने कहा -रामजी के दर्शन से उनकी मनोवृत्ति बदल गई है। रघुनाथ की दृष्टि ही चमत्कारी है। रघुनाथजी से दर्शन से हमारे पाप छूट गए है। चोरी,मारकाट,हिंसा आदि भी छूट गए है।
रामजी के दर्शनसे स्वभाव  सुधरता है पर रामजी का नाम लेने से भी स्वभाव सुधरता है।

भरतजी को एक ही चिंता है कि मेरे राम-सीता घर कैसे आये? मेरे मुँह से कैसे बोलू?
वशिष्ठजी भरत की परीक्षा करते है और कहते है -
भरत -शत्रुघ्न तुम दोनों वन में रहो और राम-सीता  को हम अयोध्या ले जायेंगे।
भरत बोले-गुरूजी-आपने तो मेरे मन की बात कर दी।
रामजी अयोध्या पधारे तो चौदह वर्ष तो क्या पूरी जिंदगी  हम वन में रहने के लिए तैयार है।

वशिष्ठजी कने कहा -लोग मुझे ब्रह्मनिष्ठ समझते है पर आज भरत को देखकर लगता है कि वह मुझसे कई गुना श्रेष्ठ है।फिर वो रामजी को कहते है-कि- राम,भरत के सुख का उपाय बताओ।
राम कहते है-भरत जो कहे मै वह करने  को तैयार हूँ। वह अपने मन में कुछ न रखे। मै उसे नाराज़ नहीं करूँगा।

भरत को लगा कि बड़े भैया ने उसके  सभी पाप क्षमा कर दिए है। उन्होंने कभी मेरा दिल दुखाया नहीं है।
भरतजी कहने लगे -मै तो आपका सेवक हूँ। आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। आपके राज्याभिषेक का सारा प्रबन्ध हम करके आये है। आपका ही राजयतिलक किया जाए। अयोध्या वापस लौटकर आप सबको सनाथ कीजिए। राम-लक्ष्मण और सीता वापस लौटे और मै शत्रुघ्न के साथ वनवास करूँगा या लक्ष्मण के साथ शत्रुघ्न को भी अयोध्या भेजिए और मुझे सेवा का लाभ दीजिए। अथवा हम तीनों भाई वन में रहे आर आप सीताजी के साथ अयोध्या जाए।

उसी समय जनक राजा भी वहाँ  आये है। खूब बातें की है। सीता को तपस्वी वस्त्र में देखकर उनका ह्रदय भर आया। कौशल्या ने कहा -सीता  को समझाओ। वह चौदह वर्ष वन में कैसे रह सकेगी? राम-विरह को भी सह नहीं शकेगी। भरत को भी संतोष मिले ऐसा कुछ कीजिए।
जनकजी- मै ब्रह्मज्ञानी हूँ फिर भी भरतके प्रेम के आगे मेरी बुद्धि कुंठित हो गई है।
सीता को मै अपने साथ ले जाऊँगा। बेटी,तुमने दोनों कुल का उद्धार और पवित्र किया है।
सीताजीने कहा- मेरे पति का वनवास मेरा भी वनवास है। पिताजी,मै आपके साथ नहीं जा सकती।
आप अधिक आग्रह न करें।

जब अन्तिम सभा हुई । तब भरत ने आज्ञा मांगी।
रामजी ने अन्तिम निर्णय सुनाया -भरत मैंने  कभी तेरा मन नहीं दुखाया किन्तु आज की बात कुछ ओर है।
हम दोनों को पिताजी की आज्ञा का पालन करना है। पिताजी की दोनों आज्ञा का पालन करना है।
पहली आज्ञा का पालन तुझे करना है। और दूसरी का मुझे करना है।
तुम्हे  चौदह वर्ष राज्य करना है और मुझे चौदह वर्ष वन में रहना है।

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