Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-281


भरतजी ने कहा -मै चौदह वर्ष आपकी प्रतीक्षा करूँगा।
चौदह वर्ष की अवधि ख़त्म होने के बाद एक दिन भी आपनेआने में विलम्ब किया तो
मै अग्नि में प्रवेश कर प्राण त्याग दूँगा।
मै अकेला कैसे जाऊँगा ? मुझे कोई अवलम्बन दो।  

भरत को रामजी ने स्मरण के स्वरुप में अपनी चरणपादुका दी। उन्होंने पादुका अपने सिर पर रखी।
बन्धुप्रेम का आदर्श स्थापित करने के लिए भरत “सीताराम-सीताराम”बोलते हुए अयोध्या वापस लौटे।
सिंहासन पर पादुका की स्थापना की और बोले राज्य मेरा  नहीं है,रामजी का है,मै तो सिर्फ एक सेवक हूँ।

पादुका को पूछकर और आज्ञा लेकर भरतजी सब काम करते है। पादुका की  नित्य सेवा करते है।
भरतजी व्रत और तप करते है। रामजी की तपश्चया से भी भरतजी की तपश्चर्या अधिक श्रेष्ठ है।
उनका प्रेम ऐसा प्रबल है कि जड़ पादुका भी मानो चेतन हो गई है।
शाम को  सीताराम में आँख स्थिर कर  भरतजी सीताराम का जप करते है। कई बार जप करते समय उन्हें संयोग का अनुभव होताहै। वे भूल जाते है कि राम-सीता वन में गए है। उनका प्रत्यक्ष अनुभव उन्हें होता है।

राम-सीता का एक स्वरुप वन में है और एक स्वरुप घर में है।
श्रीराम तो सर्वव्यापक है। रामजी का स्मरण करते ही वह प्रकट होते है।
सर्वव्यापक परमात्मा माया के आवरण में छुपे हुए है।
भक्त प्रेम से भक्ति करे और जप करे तो प्रभु को प्रकट होना ही पड़ता है।

भरत जैसा पवित्र और उनके जैसा ईश्वर के लिए विरह जागे तो प्रभु प्रकट  होते है। भरतजी जब राम विरह में एकदम व्याकुल होते है तब पादुका में से श्रीराम प्रकट होते है।
वियोग का आदर्श भरत है और वियोग में सेवा कैसे करनी उसका आदर्श लक्ष्मण है।

इस तरफ चित्रकूट में रामजी ने सोचा कि अगर मै यहाँ रहूँगा तो अयोध्यासे लोग मुझे मिलने आयेंगे।
इसलिए उन्होंने चित्रकूट का त्याग करने का निश्चय किया।
चित्रकूट के महान सन्त अत्रि ऋषि के आश्रम में रामजी पधारे है।

अत्रि-निर्गुणी है ,तीन गुण में जो फँसता नहीं है वह अत्रि।
मनुष्य-तीनो गुण में फँसा हुआ है। दिन ने रजोगुण,रात को तमोगुण।
और जब भगवद भजन ने जीव आर्द्र बने तब सत्वगुण में।
यह समझने के लिए रामायण में तीन उदहारण दिए है।
विभीषण-सत्वगुण,रावण-रजोगुण,और कुंभकर्ण तमोगुण का स्वरुप है।

जो तीनो गुण को पार कर परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ रखता है उसे अत्रि  कहते है।
अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया महान पतिव्रता है। अत्रि ऋषि वृद्ध है। स्नान करने जा नहीं सकते।
अनसूया की प्रार्थना से मन्दाकिनी गंगा अत्रि ऋषि के आश्रम में से निकली है।
अनसूया ने सीताजी की खूब तारीफ़ की है और सीताजी को दिव्य वस्त्र दिए है जो कभी मैले  नहीं होते।
जैसे कि भविष्य की तैयारी कर दी।

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