प्रथम तो उन्हें हनुमानजी से मिलन हुआ। हनुमानजी ने पूछा -आप कौन है? रामजी ने अपनी पहचान बताई। हनुमानजी ने साष्टांग प्रणाम किया और कहा कि -
इस पर्वत पर सुग्रीव रहता है। वह आपका दास है। उससे मैत्री करो।
राम-सुग्रीव की मैत्री हनुमान द्वारा होती है। जब तक जीव की मैत्री ईश्वर से नहीं होती तब तक जीवन सफल नहीं होता। और ऐसी मैत्री हनुमानजी अर्थात ब्रह्मचर्य के बिना नहीं हो पाती।
जीव यदि ईश्वर से मैत्री करे तो वे उसे अपना लेते है। वे उसे भी ईश्वर बना देते है।
वे तो इतने उदार है कि जब देते है तब सोचते नहीं है।
जीव जब देता है तो अपने पासथोड़ा रखकर फिर दूसरो को देता है।
परमात्मा के साथ वही मैत्री कर सकता है जो काम को अपना शत्रु बनाता है।
कृष्ण और काम,राम और रावण एक साथ नहीं रह सकते।
सुग्रीव ने कहा -एक राक्षस आकाशमार्ग से कोई स्त्री को ले जा रहा था। उस स्त्री ने हमे देखकर ये आभूषण फेंके है। सीताजी के आभूषण देखकर राम गमगीन हो गए है।
उन्होंने लक्ष्मण से पूछा -यह हाथ के कंगन क्या तेरे भाभी के है? यह चन्द्रहार,कर्णफूल क्या उनके है?
लक्ष्मणजी बोले -भाभी के चरण को वंदन करते समय मैंने मात्र उनके नुपुर को देखा है। मै उसे पहचानता हूँ।
और कोई आभूषण को मै नहीं जानता। लक्ष्मणजी संयम का प्रतिक है।
परमात्मा से प्रेम किये बिना जीवन सुन्दर नहीं होता।
वैसे,प्रेम किये बिना मनुष्य जी नहीं सकता। और ऐसे,कोई धन से,कोई स्त्री से -कोई बालक से प्रेम करता है
किन्तु प्रेम करने योग्य तो एक परमात्मा ही है।
परमात्मा के सिवा अन्य किसी से भी प्रेम किया जाये तो वह अंत में रुलाता है।
जगत अपूर्ण है और जीव भी अपूर्ण है।
परमात्मा के साथ मैत्री होने पर जीवन परिपूर्ण हो जाता है। परमात्मा उसे पूर्ण बनाते है।
रामजी ने सुग्रीव से पूछा -तुम इतने दुखी क्यों दिखाई देते हो?
सुग्रीव बोले-मेरे भाई वाली ने मुझे मार कर निकाल दिया है। मेरा सर्वस्व उसने ले लिया है।
मेरी पत्नी का भी उसने अपहरण किया है।
रामजी ने पेड़ के पीछे से वाली को तीर मारा है।
वाली बोला- हे नाथ मेरे कौन से दोष से आपने मुझे यह तीर मारा है?आपने यह अधर्म क्यों किया?
रामजी बोले-तू अपने दोष को देखता नहीं है और मुझे दोष देता है?
भाई की पत्नी,पुत्र की पत्नी और कन्या यह चारों समान है। फिर भी तूने भाई की पत्नी पर कुदृष्टि डाली।
तू महापापी है। अतः तेरा उद्धार करने के लिए ही तेरा वध कर रहा हूँ।
स्वदोष के दर्शन बिना ईश्वर के दर्शन नहीं हो पाते। परदोष -दर्शन परमात्मा के दर्शन में बाधारूप है।
वाली बोला-प्रभु,यदि मै पापी हूँ तो मुझे बताइए कि कौन से ग्रन्थ में लिखा है कि पापी को भी आपके दर्शन का लाभ हो सकता है। उल्टा ऐसा भी होता है कि -मुनिगण जन्म -जन्मान्तर कई प्रकार की साधना करते है फिर भी अंतकाल में उन्हें आप के दर्शन नहीं देते है ।