Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-295



जिसने पहले तपश्चर्या की होगी,वे भोग भुगतने ने सावधान रहेंगे।
सभी महान व्यक्तियों ने अरण्यवास किया था। महाप्रभुजी ने नंगे पाँव भारत की यात्रा की थी।
वे दो वस्त्र से अधिक कुछ भी पास नहीं रखते थे। जीवन में तपश्चर्या जरुरी है।

वन में विलासी के संग में नहीं रहना। विलासी लोग से दूर जाना है। गृहस्थ के घर में भोग के परमाणु है।
भोगभूमि में भक्ति नहीं होती। साल में एक दो महीने पवित्र नदी के किनारे या कोई पवित्र जगह पर जाकर
रहना चाहिए जहाँ सिर्फ मे और मेरे भगवान,तीसरा कोई नहीं। तीसरे के आने से तूफान खड़ा होता है।

वनवास मनुष्य के ह्रदय को कोमल बनाता है। वनवास से विश्वास हो जाता है कि भगवान के सिवा अपना और कोई भी नहीं है नहीं है। अरण्यकांड हमे बोध देता है कि-धीरे-धीरे वासना का विनाश करो और संयम बढ़ाओ।

उत्तम तप संयम है। पहले तो जीभ पर संयम रखना है। वनवास के समय राम ने अन्न नहीं लिया था।
सिर्फ फलाहार करते थे। अन्न में रजोगुण काम को उत्पन्न  करता है। सीताजी के साथ रहने पर भी
राम निर्विकार है। धीरे-धीरे वासना का विनाश कैसे करना यह अरण्यकांड में  बताया है।
दान से वासना का विनाश नहीं होता। प्रभु में प्रेम नहीं होता। वासना का विनाश प्रभु के नाम से होता है।
जीवन को सात्विक बनाना पड़ता है। जीवन में तपश्चर्या करने से ही रावण  अर्थात काम  मरता है।

अरण्यकांड में सूर्पणखा (मोह)शबरी(भक्ति)है। शूर्पणखा  अर्थात वासना,मोह की ओर भगवान कभी नहीं देखते।
वे तो शबरी शुद्ध भक्ति की ओर ही देखते है। मोह का नाश करो और शुद्ध भक्ति अपनाओ।

अब किष्किंधाकांड आता है।
इस कांड में जीव(सुग्रीव) और ईश्वर(रामजी)की मैत्री बताई है। अरण्यकांड में काम का त्याग हुआ -तो-
जीव और ईश्वर का मिलन हुआ। पर दोनों की मित्रता तब होती है जब बीच में हनुमानजी(ब्रह्मचर्य) आते है।

सुग्रीव का अर्थ है जिसका अच्छा कंठ- इस कंठ की शोभा आभूषण से नहीं पर नामजप और रामनाम से होती है। हनुमानजी ब्रह्मचर्य का प्रतिक है। भक्ति और ब्रह्मचर्य के बिना ईश्वर से मित्रता  नहीं होती है।
लिखा है कि ब्रह्मचर्य के बल के बिना भजन में आनंद नहीं आता।

जीव और ईश्वर से मित्रता हुई- जीवन सुन्दर बना -
तब- आया सुंदरकांड
जब तक जीव प्रभु से मित्रता नहीं करता तक तक उसका जीवन नहीं सुधरता। मित्रता करने के लिए सिर्फ परमात्मा है। जो जीव परमात्मा के लिए,परोपकार के लिए जीता है उसका जीवन सुन्दर है।

किष्किंधाकाण्ड के बाद सुंदरकांड आता है।
सुंदरकांड नाम से ही सुन्दर है। इसमें रामभक्त हनुमान की कथा आती है। रामसेवा  ही हनुमानजी का जीवन है। रामनाम उनका भोजन है।
भागवत में जैसे दशम स्कंध है उसी  तरह रामायण में सुंदरकांड है।

सुंदरकांड में हनुमानजी को सीताजी के दर्शन होते है। सीताजी- पराभक्ति है।
जिस जीवन सुंदर  हो -उसे ही पराभक्ति के दर्शन होते है।
संसार-समुद्र को पार करने वाले को ही सीताजी- पराभक्ति के दर्शन हो सकते है।
और,अकेले हनुमानजी ही संसार-समुद्र को पार सकते है।

   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE