Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-296


ब्रह्मचर्य और रामनाम के प्रताप से हनुमानजीमे दिव्य शक्ति का संचार हुआ।
समुद्र पार करते समय मार्ग में सुरसा बाधा डालती है।
सुरसा(जीभ)-रास लेने वाली वासनामय जीभ अर्थात सुरसा।
जिसे संसार-समुद्र पार करना है उसे पहले जीभ(इन्द्रिय)को मारनी पड़ेगी।
हनुमानजी ने सुरसा का पराभव किया है।

जीवन को यदि सुन्दर बनाना है तो उसे भक्तिमय बनाओ। सीताजी पराभक्ति है।
जहाँ पराभक्ति हो,वहाँ शोक नहीं रह पाता। इसलिए सीताजी अशोकवन में है।
सीताजी ने हनुमानजी को अपनाया है।

सुंदरकांड के बाद आता है लंकाकांड
जीवन सुन्दर और भक्तिमय होने पर राक्षस मरते है। काम,क्रोध,लोभ,मोह,मत्सर यह सब विकार राक्षस है।
इन विकारों के जाने के बाद भक्ति करेंगे। पर यह बात सच नहीं है। भक्ति के बिना ये विकार नहीं जाते।
भक्ति करने से ही यह विकार धीरे-धीरे कम होते है।

जो काम को मार सकता है, वह काल को भी मार सकता है। लंका शब्द को उलटाने से होता है काल।
काल सभी को मारता है,किन्तु हनुमानजी उसे भी मारते है। वे लंका को अर्थात काल को जलाते है।

लंकाकांड के बाद आता है उत्तरकांड
तुलसीदासजी ने इस कांड में सब कुछ भर दिया है। इस कांड में मुक्ति मिलेगी।
गरुड़जी और काकभुशुण्डि के संवाद को बार-बार पढ़ो।
जब तक राक्षस,काल का विनाश नहीं होता,तब तक उत्तरकांड में प्रवेश नहीं मिलता।
उत्तरकांड में भक्ति की कथा है। भक्त कौन है?भगवानसे जो एक भी क्षण विभक्त नहीं रह पाता वही भक्त है।

पूर्वार्ध  में जो रावण को मारता है,उसी का उत्तरार्ध (उत्तर-कांड) सुधरता है।
जीवन में पूर्वकाण्ड -यौवनावस्था में काम को मारने का प्रयत्न करोगे,तभी तुम्हारा उत्तरार्ध-उत्तरकांड सुधर पायेगा। सो जीवन को सुधारने का प्रयत्न युवावस्था में ही करना चाहिए।
इस प्रकार ये सात कांड मानव जीवन की उन्नति के सात सोपान है।

रामकथा सागर जैसी है।राम के चरित्र का कौन वर्णन कर सके? उसका कोई अंत नहीं है।
कुछ नहीं तो अंत में शिवजी की तरह ह्रदय में रामनाम रखो तो भी बहुत है।
हनुमानजी कहते है कि -सबसे बड़ी विपत्ति वही है कि जब राम का स्मरण न किया जाता हो।

राज्याभिषेक के बाद अयोध्यावासीको  राम बोध देते है।
यह बोध मात्र अयोध्यावासी के लिए नहीं पर हम सब के लिए है।
यह मानव-शरीर हमे मिला है,वह विषय-भोग के लिए नहीं है। विषय-सुख एक  क्षण  के लिए स्वर्ग-सा सुखद लगता है किन्तु अंत में तो दुःखमय होता है। मानव-शरीर पाकर जो मनुष्य मात्र विषय के पीछे ही लगा
रहता है,वह अमृत के बदले में विष ही ग्रहण करता है।

सूर्यवंश में अंतिम राजा सुमित्र हुआ।
अब चन्द्रवंश प्रारम्भ हुआ है। चन्द्रवंश में श्रीकृष्ण प्रकट हुए है।

इस वंश में ययाति नाम का राजा हुआ है। भोगोपभोग से कभी शान्ति नहीं मिलती। उसी पर ययाति राजा का चरित्र है। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ था।

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