स्नान करने के बाद जब वे वस्त्र पहनने लगी तब शर्मिष्ठा ने भूल से देवयानी के कपड़े पहन लिए।
देवयानी ने क्रोधवश शर्मिष्ठा को बहुत से जली -कटी सुनाई।
शर्मिष्ठा भी क्रोधित हुई और उसने देवयानी के वस्त्र छीनकर उसे (देवयानी को) कुएँ में फेंककर चली गई।
उस समय ययाति राजा मृगया खेलने के लिए निकले थे। उन्होंने देवयानी को कुएँ से बाहर निकाला।
देवयानी ने राजा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा और राजा ने स्वीकार किया।
देवयानी ने घर जाकर पिता शुक्राचार्य को सब बात बताई। शुक्राचार्य अपनी पुत्री की बात सुनकर वृषपर्वा नगर की ओर चल दिए। वृषपर्वा को पता चला तो वे शुक्राचार्य से क्षमा मांगने आए।
तब देवयानी ने अहंकारसे कहा -मै जहाँ जाऊ वहाँ तुम्हारी पुत्री शर्मिष्ठा को दासी के रूप में आना होगा।
राजा ने कबुल किया और शर्मिष्ठा दासी बनकर ययाति के घर गई।
शुक्राचार्य ने ययाति को शर्मिष्ठा के साथ विषय-सुख भोगने के लिए मना किया था।
ययाति ने उनका वचन नहीं निभाया इसलिए शुक्राचार्य ने उन्हें वृद्ध बना दिया।
ययाति ने अपनी वृद्धावस्था दूर करने का उपाय पूछा तो शुक्राचार्य ने कहा कि जो तेरी वृद्धावस्था लेकर अपनी जवानी तुझे दे तभी यह हो सकता है। ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से जवानी मांगी। यदु ने इंकार किया। तब छोटा पुत्र पुरू अपनी जवानी देने को तैयार हुआ।
ययाति ने अपने छोटे पुत्र से जवानी लेकर हजारों वर्ष विषयसुख भुगता पर फिर भी उन्हें तृप्ति नहीं हुई तब उसके मन वैराग्य जागा और उसने जगत को उपदेश दिया कि -
विषयों को उपभोग करते रहने से काम-वासना कभी तृप्त या शांत नहीं होती किन्तु जैसे अग्नि को घी की आहुति देने से अग्नि भड़कती है,वैसे ही वासना उग्र होती जाती है।
भृतहरि ने भी कहा है -भोगों का नहीं,हमारा ही उपभोग हो जाता है। तृष्णा नहीं,हम ही जीर्ण होते जाते है।
काम को शास्त्र में हित शत्रु कहा है। वह काम करता है शत्रु का -पर बताता है -मै तेरा मित्र हूँ।
ययाति राजा विलाप करते है-मैंने मेरी शक्ति का दुर्व्यय किया। मेरा शरीर बिगाड़ा।
काम और क्रोध को कभी मित्र न बनाना। उनके साथ वैरी जैसा व्यवहार कर उसे छोड़ दो।
देवयानी के बड़े पुत्र -यदु के वंश में श्रीकृष्ण प्रकट हुए है।
छोटे पुत्र पुरू ने अपनी जवानी पिता को दी इसलिए पिता ने राज्य उसे दिया है।
आगे चलकर इस वंश में दुष्यंत और रंतिदेव नाम के राजा हुए।
रंतिदेव का चरित्र अध्भुत है। उसे जो मिलता वह दूसरो को देता। रंतिदेव के जीवन का ध्येय था-
चाहे उसे कितना भी दुःखी क्यों न होना पड़े,दूसरो को सुखी करना।
रंतिदेव ने एक बार अपने प्राण संकट में डालकर अपना भोजन,पानी आदि सब कुछ औरोंको दे दिया था।
आगे चलकर इस वंश में शान्तनु महाराज हुए। उनके वहाँ गंगा द्वारा देवव्रत(भीष्म) हुए।
एक पुत्र देकर गंगा ने विदाय ली। पिता के सुख के लिए देवव्रत(भीष्म) ने राज्य,संपत्ति और कामसुख का त्याग किया। पिता ने मत्स्यगंधा के साथ पुनः विवाह किया।
दूसरे पुत्र विचित्रवीर्य और उनके वहाँ पांडु नाम के राजा हुए।
पांडु के वहाँ पांडव और उनके वंश में परीक्षित का जन्म हुआ।
इस स्कंध की समाप्ति में यदु राजा के वंश का वर्णन किया है। यदु राजा का वंश दिव्य है।
उनके वंश में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है।
बाहुक के यहाँ दो पुत्र हुए। देवक और उग्रसेन। देवक राजा ने सात कन्या का विवाह वसुदेव के साथ किया।
वसुदेव और देवकी का आँठवा संतान -श्रीकृष्ण।
धर्म की स्थापना करने और अधर्म का नाश करने के लिए भगवान ने अवतार लिया है।
श्रीकृष्ण ने बचपन गोकुल में बिताया और चौदह वर्ष मथुरा में रहे। उसके बाद श्रीकृष्ण द्वारिकानाथ हुए है।
गृहस्थ धर्म का आदर्श बताया है। सोलह हज़ार रानियाँ है पर किसी में आसक्ति नहीं है।
पृथ्वी पर का भार कम करने के लिए कौरव और पांडवों का युद्ध कराया।
इस प्रकार नवम स्कंध की समाप्ति में संक्षिप्त कृष्ण-कथा कही गई।
नवम स्कंध समाप्त