अब दशम स्कंध का आरम्भ हो रहा है। भागवत का फल दशम स्कंध है। दशम स्कंध में शुकदेवजी खिल गए है। यह शुकदेवजी के इष्टदेवजी की कथा है।
श्रीमद भागवत सात दिनों में मुक्ति दिलाने वाला ग्रथ है। अनेक जन्मों तक साधन-साधना करने पर भी नहीं मिलनेवाली मुक्ति राजा परीक्षित को सात दिनों में मिली है।
भागवत की शुरुआत में परीक्षित राजा का प्रथम प्रश्न यह था-जिनका मृत्यु नजदीक है,उनका क्या कर्तव्य है? शुकदेवजी यदि यज्ञ करने की आज्ञा दे तो भी सात दिनों में मुक्ति पाना संभव नहीं था।
जीवन के अंतिम श्वास तक विचार या विकार न आये ऐसा कोई उपाय करना था।
शुकदेवजी ने सोचा कि - यदि राजा कृष्णकथामें तन्मय हो तो उन्हें मुक्ति मिल सकती है।
मुक्ति मन को मिलती है। मुक्ति आत्मा के लिए नहीं है। आत्मा तो सदा मुक्त है। सुख-दुःख मन को होता है। आत्मा को सुख-दुःख नहीं होता। मन को सुख-दुःख होने पर उसका आरोप आत्मा पर लगाते है।
मन को मारने से मुक्ति मिलती है। संसार के विषयों का चिंतन मन छोड़े तो वह ईश्वर में लीन होता है।
कृष्णकथाका आकर्षण मन को ईश्वर में लीन कर सकता है।
मन को संसार के विषयों की ओर से हटाकर कृष्णलीला में लगा दो।
थोड़ी देर आँख बंद कर सोचने का कि कृष्ण गाय चराने गए है,कन्हैया गायों को खिला रहा है.
कृष्ण लीला निरोध लीला है। मन का निरोध करना है।
जगत का विस्मरण और भगवानमें आसक्ति-इसका नाम निरोध।
सांसारिक विषयो का विस्मरण होने पर ही सच्चा आनंद प्रकट होता है।
सांसारिक संबंध छूटने पर ही ब्रह्म-संबंध जुड़ता है।
यदि सांसारिक विषयोमें सच्चा आनंद होता तो यह सब कुछ छोड़कर निद्रा की इच्छा ही नहीं होती।
श्रीकृष्ण कथा ऐसी है कि-वह जगतको भी भुला देती है। और प्रभु के प्रति प्रेम होता है।
आनंद जगत में नहीं है पर जगत को भूलने में है। जगत में रहना भी है और उसे भूलना भी है। संसार को छोड़कर कहाँ जाओगे?जहाँ भी जाओगे संसार साथ-साथ आएगा। संसार को छोड़ना नहीं है पर उसे मन से निकालना है।
दशम स्कंध के आरम्भ में शुकदेवजी ने परीक्षित राजा की परीक्षा ली। "सात दिन तक एक आसन पर बैठे रहना है। यदि कुछ जलपान करना हो,खाना-पीना हो तो-अब वह कर सकते हो। फिर मै आगे की कथा करू। "
परीक्षित ने कहा -महाराज,थोड़े दिन पहले मेरेसे भूख-प्यास सहन नहीं होते थे,प्यास के कारण मुनि के गले में
सर्प का हार पहनाकर उनका अपमान किया था। उसकी शिक्षा यह हुई है। अब तो भूख-प्यास कुछ नहीं सताता। इसका कारण यही है कि आपके मुखकमल से बह रहे श्री हरि कथामृत का पान कर रहा हूँ।
कथा के रसपान से मुझे भूख और प्यास सता नहीं सकती।
राजा के वचन सुनकर शुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई है। राजा सुपात्र और जिज्ञासु है।
कथा में ऐसी तन्मयता होनी चाहिए। कृष्णकथा अनायास ही संसार को भुला देती है।
कृष्ण कथा जगत का विस्मरण कराती है।