Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-300


कृष्ण प्रेम में ह्रदय लीन हो जाए,आँखे प्रेमाश्रु से भीग जाए तभी ब्रह्म संबंध होगा।

उसके बाद ब्रह्म संबंधको बनाए रखना है जिससे मन फिर माया के चक्कर में फँस न जाए।
यदि परीक्षित की भाँति,माया के साथ विच्छेद और ब्रह्म के साथ सम्बन्ध हो जाए तो सात ही दिनों में मुक्ति प्राप्त हो सकती है। ब्रह्म चिंतन करते-करते मर जाने से मुक्ति मिल जाती है।

दशम स्कंध भगवान श्रीकृष्ण का ह्रदय है। वे रसस्वरूप है,अतः जीव भी रसस्वरूप है।
प्रत्येक जीव को किसी-न-किसी रस में रूचि होती है। भिन्न रूचि वाले सभी को यह कृष्ण कथा आनंद देती है। श्रीकृष्ण कथाके-एक दिव्य रससे-प्रेम और विरह दोनों  रसमें ह्रदय आद्र बनता है,तब रसानुभूति होती है।

सामान्यतः जीव के चार भेद है (१) पामर (२) विषयी (३) मुमुक्षु (४) मुक्त।
अधर्म से धन का उपार्जन  करे और अनीतिपूर्वक उपभोग करे,वह पामर जीव है।
धर्मका पालन करके कमाई करके,फिर वह कमाई - इन्द्रिय-सुख का उपभोग करे वह विषयी जीव है।
सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाने की इच्छा और प्रयत्न करने वाला जीव मुमुक्षु जीव है।
कनक और कांतारूपी माया के बंधनों से मुक्त होकर प्रभु में तन्मय हुआ जीव मुक्त जीव है।

श्रीमहाप्रभुजी कहते है,राजस,तामस और सात्विक,किसी भी प्रकृतिका जीव कृष्ण-कथामेंसे आनन्द पा सकता है। इसलिए उन्होंने दशम स्कंध के तीन विभाग किए है-सात्विक प्रकरण,राजसिक प्रकरण और तामसिक प्रकरण।

श्रीकृष्ण प्रेम-स्वरुप होने से परिपूर्ण माधुर्य से भरे हुए है।
श्रीकृष्ण लीला के विविध रसों में से कोई भी रस से “रूचि”को “पुष्टि”मिलती है।
धीरे धीरे संसार से आसक्ति कम होती है और श्रीकृष्ण में आसक्ति होने से जीवन सफल होता है।

ईश्वर में मन का निरोध होने पर मुक्ति सुलभ है। श्रीकृष्ण को मन में रखने से मन का निरोध होता है।
मन का निरोध ईश्वर में ही हो सकता है,अन्य किसी चीज़ में मनका निरोध नहीं हो शकता है।

परीक्षित राजा के मन को सांसारिक विषयों में से हटाकर श्रीकृष्ण के साथ एकरूप करके उसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही यह दशम स्कंध है। इसमें श्रीकृष्ण की वह लीला का वर्णन है,जिसने अनेकों को प्रेम-पागल बना दिया।
सनातन स्वामी कभी किसी राजा के मंत्री थे। दशम स्कंध की कथा सुनकर वे साधु हो गए।
यह कथा राजा को भी आकर्षित करती है और योगियों को भी।
इसका कारण है -श्रीकृष्ण- चित्तकी शान्ति तो क्या -स्वयं चित्त को ही चुराते है।ऐसा अध्भुत है उनका रूप।

शुकदेवजी महायोगी और महाज्ञानी है,पर सब छोड़कर,समाधी छोड़कर कृष्णकथा में पागल बने है।
परीक्षित ने पूछा -आपने सर्व का त्याग किया किन्तु कृष्णकथा का त्याग नहीं किया। आपने अपने पिता से भी
कह दिया था कि-न तो आप उनके पुत्र है और न वे आपके पिता।
आपने पिताका तो त्याग किया किन्तु कृष्णकथा का नहीं।आपको भी यह कथा आनन्द देती है।

महापुरुष कहते है कि -जब तक नाक पकड़कर बैठे है (अर्थात तप-या समाधि कर रहे है) तब तक ठीक है,
किन्तु आसन से उठ जाने पर कब मन भागने लगता है,उसकी खबर तक नहीं हो पाती।
मन को निर्विषयी बनाओ। यह बड़ा कठिन है।
इसलिए वैष्णव कहते है कि मन को प्रतिकूल विषयों में से हटकर अनुकूल विषयों में जोड़ दो।
वेदांती कहते है कि  जब आत्मा को बंधन ही नहीं है तो फिर मुक्ति का प्रश्न ही कैसे उपस्थित हो सकता है?
वैष्णवो को भगवान की सेवा में ऐसा आनन्द मिलता है कि वे मुक्ति की इच्छा ही नहीं रखते।

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