किन्तु योगावस्था में से जागृत होने पर,आँखे खुलते ही मन चंचल होकर सांसारिक विषयोंमें खो जाता है।
इसलिए ज्ञानमार्ग को कठिन माना गया है। ज्ञान मार्ग में पतन का भय होता है।
भक्ति मार्ग में इन्द्रियों के साथ झगड़ा नहीं होता। भक्ति मार्ग में आँख और सभी
इन्द्रियाँ प्रभु को देनी होती है। कृष्णा कथा में अपने आप ही खुल्ली आँखोंसे ही समाधि लग जाती है।
आँख बंद होने पर मन शांत रहे उसका ज्ञान कच्चा। पर खुल्ली आँखों से मन शांत रहे वह ज्ञान सच्चा है।
खुल्ली आँखों से जगत -ना- दिखे और प्रभु दिखे वह ज्ञान सच्चा है।
समाधि के दो प्रकार है। जड़ और चेतन।
जड़ समाधि वह है,जिसमे योगी मन को बलपूर्वक वश में रखने का प्रयत्न करते है।
मन पर ऐसा बलात्कार करना भी ठीक नहीं है। इसी कारण से कई जगह हठयोग की निंदा की है।
हठयोगी को भक्ति का सहारा न मिल पाये तो उसका योग निरर्थक है।
मन पर बलात्कार करने की अपेक्षा उसे प्रेम से समझाकर वश में करना अच्छा है।
मन की कोई सत्ता नहीं होती। मन आत्माकी आज्ञा में है। आत्माके आदेशानुसार मन को कार्य करना पड़ता है।
मन को शास्त्र में नपुंसक कहा गया है।योगी मन को बलपूर्वक ब्रह्मरंध्र में स्थापित करते है।
उस समय उनका शरीर जड़ हो जाता है। जड़ समाधिमें शरीर का ख्याल नहीं रहता।
जड़ समाधि की तुलना में चेतन समाधि श्रेष्ठ है। गोपियों की समाधि चेतन समाधि है।
वे कान बंद करके या आँख मूंद कर नहीं बैठती। वे तो खुल्ली आँखों से ही कृष्ण के ध्यान में तन्मय हो जाती है। वे तो अपने कान और आँखों में ही श्रीकृष्ण को बसाती है।
यह देखकर तो उद्धवजी जैसे ज्ञानी को भी आश्चर्य हुआ है। गोपियों का कृष्णप्रेम देखकर उद्धवजीका
अभिमान उतर गया है। ये गोपियाँ को तो-खुल्ली आँखों से भी समाधि लग शकती है।
समाधि ऐसी साहजिक होनी चाहिए। इसलिए तो उद्धवजी की निर्गुण निराकार ब्रह्म की आराधना की बात सुनकर गोपियों ने कहा था-कि-हम तो खुल्ली आँखों से ही सर्वत्र साकार ब्रह्म श्रीकृष्ण का दर्शन करते है।
अतः साकार ब्रह्म को छोड़कर तुम्हारे निराकार ईश्वर का ध्यान-चिंतन क्यों करे?
हे,उद्धवजी,जो खुल्ली आँखोंसे ब्रह्म (इश्वर) का दर्शन कर नहीं पाता,
वही -ही-अपनी आँखोंको मूंदकर ललाट में ब्रह्म (इश्वर) के दर्शन करने का प्रयत्न करता है।
हम तो हर-जगह,हर-पल,श्रीकृष्णके दर्शन करते है,उनका चिन्तन करते है, और उनका ध्यान करते है।
उद्धवजी को तो सिर्फ मथुरा में ही श्रीकृष्ण के दर्शन होते है,
पर गोपियों को तो जहाँ -जहाँ उनकी नजर जाए वहाँ उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन होते है।
परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने के बाद योग-समाधि की जरुरत नहीं रहती।
इसलिए गंगा किनारे शुकदेवजी गोपियों के प्रेम की कथा करते है। गोपियों की खूब तारीफ़ करते है।
भक्तिसूत्र में नारदजी ने भी यही कहा है -भक्ति कैसी करनी? तो नारद बोले है-गोपियों जैसी।
गोपियाँ गृहस्थ होने पर भी महापरमहंस है।
जो सभी बाह्य विषयोंसे अलिप्त होकर कृष्णप्रेम में तन्मय हो जाती है।