Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-304



कंस अभिमानका स्वरूप  है। वह जीवमात्र को बंद किए रहता है। (अभिमान बंधन का कारण है)
वैसे तो हम सभी जीव इस संसाररूपी कारागृह में बंद है।
हम सब बंदी है। जीव जब तक काम-अभिमान -के आधीन है,तब तक वह स्वतंत्र नहीं है। किन्तु बंधनमें है
.
वसुदेव-देवकी कारागृह में भी जागृत थे,जब कि हम तो -संसारमे -सोए ही रहते है।
संसार में जो जागृत है,वही भगवान को पा सकता है।
“जो जागत है,वह पावत है। जो सोवत है,वह खोवत है।”
कबीरजी ने कहा है -सुखिया सब संसार है,खावै अरु सोवै। दुखिया दास कबीर है,जागै अरु रोवै।
कबीर उनके (भगवानके) लिए जागे और रोए सो उन्हें भगवान मिले।
मीराबाई भी उनके लिए जागी और उनके लिए-रोई सो उन्हें भी भगवान मिले।

कंस ने देवकी के छ संतानों की हत्या कर दी। देवकी को सातवाँ गर्भ रहा है।
इस तरफ परमात्मा ने योगमाया को आज्ञा की है। “मेरे दो काम तुझे करने है। “

मायाका आश्रय लिए बिना भगवान अवतार नहीं ले सकते। शुध्द ब्रह्म का अवतार हो ही नहीं सकता।
यदि ईश्वर,अवतार लेकर आये तो जो भी उनके दर्शन कर सके,उसका उद्धार हो जाता है.
जो कि-दूर्योधनने श्रीकृष्ण के दर्शन किये थे-फिर भी उनका उद्धार नहीं हुआ था,क्योकि-
दुर्योधन ने द्वारकाधीश के दर्शन तो किये थे किन्तु मायासे आवृत प्रभुके -मनुष्य-रुपमे दर्शन किये थे।
श्रीकृष्ण को वह भगवान नहीं मानता था !!

जो निरावृत (शुध्ध-निराकार) ब्रह्म का साक्षात्कार पाता है,उसे मुक्ति मिलती है।
मायावृत ब्रह्म (साकार) के दर्शक की मुक्ति नहीं होती। (साकार से निराकार को पाना है-तब मुक्ति है)
संभव है ,भगवान के -उसउस-अवतार के समय हम भी,कीड़े-मकोड़े -या कुछ भी हुए होंगे।
उस समय -हमने भी,भगवान के दर्शन तो किये होंगे,फिर भी आज तक हमारा उद्धार नहीं हो पाया है !!

योगमाया का आगमन हुआ। उन्होंने सातवे गर्भकी रोहिणी के उदर में स्थापना की।
रोहिणी  सगर्भा हुई और दाऊजी महाराज प्रकट हुए। भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन।
बलदेव शब्द ब्रह्म का स्वरुप है। पहले शब्द-ब्रह्म आता है और बाद में परब्रह्म।
बलराम के आगमन होने पर ही परब्रह्म (इश्वर-या श्रीकृष्ण) गोकुल में आते है।

दाऊजी ने आँखे नहीं खोली। जब तक मेरा कन्हैया नहीं आएगा,मै आँखे नहीं खोलूँगा।
यशोदाजी पूर्णमौसी से बलराम की नजर उतारने की विनती करती है।
पूर्णमौसी कहती है यह तो किसी का ध्यान कर रहा है। इस बालकके कारण तेरे घर बालकृष्ण पधारेंगे।
यशोदाजी कहती है -अब तो पचपन की उम्र हुई अब कोई  आशा नहीं है।
गाँव के सभी बच्चो को मेरे मानती हूँ और खुश करती हूँ।

यशोदाकी तरह-यश सभी को दोगे और अपयश अपने पास रखोगे तो कृष्ण प्रसन्न होंगे।
पर,जीव इतना दुष्ट है कि यश अपने पास रखता है और अपयश दूसरोके सिर पर डालता है।

यशोदा-का अर्थ है-”यशः ददाति"। “जो दूसरो को यश देती है,वह यशोदा है।
नन्द -का अर्थ है- जो सभी को आनन्द देता है। वही नन्द है।

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