तीन बार फेर दी।"मेरे लाला को यदि किसी की नजर लगी हो तो इस गंगी की पूंछ में चली जाए।"
नज़र उतारने के बाद गोपियों ने कहा -माँ,लाला को अब स्नान कराओ।
लाला को गौमूत्र से स्नान कराया। भागवत में लिखा है - गौमूत्रेण स्नान यत्वा।
बाजारी साबुन से नहीं गौमूत्र से स्नान कराया गया। और फिर गरम जल से कन्हैया को स्नान कराया।
"ऋषिरूपा" (ऋषियोंने गोपीका अवतार लिया है) गोपियाँ कन्हैयाको घेर कर बैठी हुई है।
एक गोपी कहती है,अहा,कितनी सुन्दर आँखे है हमारे लाला की! तो दूसरी ने कहा,इसके केश भी बड़े सुन्दर है। तीसरी ने कहा,इसके चरण-कमल तो देख,कितने सुन्दर है।
सभी गोपियाँ बालकृष्ण के एक-एक अंग के सौंदर्य का पान करने लगी।
ये ऋषिरूपा गोपियाँ तो वेदशास्त्र-संपन्न थी। वे स्तुति करने लगी। लाला की रक्षा करने की प्रार्थना करने लगी।
छठ्ठे अध्याय के २२ से २९ श्लोको में बालरक्षा स्तोत्र है।
गोपियाँ जानती नहीं है कि जिस भगवान की वे प्रार्थना कर रही है वह यशोदा की गोद में खेल रहा है।
गोपियाँ अंत में कहती है -”परमात्मा का मंगलमय नाम सदा सर्वदा बालकृष्णलाल की रक्षा करे”.
लाला को जो कुछ होने वाला हो वह हमे हो। गोपियों का यह विशुध्ध प्रेम है।
मथुरा से नंदबाबा शाम को गोकुल में वापस आये है। उसी दिन पूतना का अग्नि-संस्कार भी किया गया।
पूतना के शरीरसे चन्दन की खुशबु आती है। पूतना को सदगति मिली है।
प्रभु पूतना को मारते नहीं है पर उसे मुक्ति दी है।
श्रीकृष्ण बड़े दयालु है। विशदायिनी पूतनाको भी अपनी माता की ही भाँति उन्होंने सदगति दी।
ऐसा दयालु और कौन हो सकता है?
यह पूतना,कृष्ण-मिलन में बाधा उपस्थित करती रहती है।
पूतना के छे दोष है-काम,क्रोध,लोभ,मोह मद और मत्सर।
तो-ईश्वर छ गुणवाले है। भगवान के छः सद्गुण है -ऐश्वर्य,वीर्य,यश,श्री,ज्ञान और वैराग्य।
भगवान के प्रत्येक सद्गुण को अपने ह्रदय में उतारने वाला व्यक्ति दोषरहित हो जाता है।
इसीलिए-भगवानने षड्दोषों वाली पूतना को छठ्ठे दिन ही मारा है।
भागवत में इस पूतना-चरित्र के सिवाय और कोई बाललीला की फलश्रुति बताई नहीं है।
इसका अर्थ यह है कि मात्र इस एक अज्ञान -काम-वासना को पहचाना जाय तो भी कुछ कम नहीं है।
अज्ञान दूर होने पर श्रीगोविन्द से प्रीति हो जाती है।
पूतना कौन थी?
बलि राजा और विन्ध्यावली रानी की पुत्री रत्नमाला का पुनर्जन्म पूतना का हुआ था।
जब वामनजी बलिराजा के यज्ञ में भिक्षा मांगने आए थे,तब उनके स्वरुप को देखकर रत्नमालाके ह्रदय स्नेह उमड़ आया था और उसके मन में हुआ कि- कितना अच्छा होता अगर यह बालक को मै पुत्र के रूप से पा सकती। मै उसे पयपान करके उसका लालन-पालन करके धन्य हो जाती।
वामन के तेजस्वी स्वरुप को देखकर रत्नमाला के ह्रदय में पुत्र-स्नेह उमड़ आया था किन्तु उन्होंने उसके पिता की जो अवदशा की उसे देखकर शत्रु भाव उमड़ आया और उसके मन में वामनजी को मारने की इच्छा हो गई।
अब यह वात्सल्यभाव और शत्रुभाव-दोनों को लेकर रत्नमाला पुनर्जन्म में पूतना बनकर आई।