Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-321



श्रीकृष्ण की लीला निरोध लीला है। जिसके मन का निरोध होता है,उसे मुक्ति मिलती है।
जब तक मन में वासना और विरोध होगा तब तक निरोध नहीं हो पायेगा। जब तक किसी भी वस्तु में सूक्ष्म वासना भी रह गई होगी,मन का निरोध नहीं होगा और फलतः मुक्ति भी नहीं मिलेगी।

पूतना की लीला के बाद अब शकटभंजन की लीला आती है।
शुकदेवजी वर्णन करते है -राजन,श्रीकृष्ण ने शकटभंजन(शकट नाम के राक्षस को मारा) तब वे १०८ दिन के थे।

कृष्ण के दर्शन किये बिना गोपियों को चैन नहीं आता था। वे प्रातःकाल से ही कन्हैया के दर्शन करने आ जाती थी। यशोदाजी कहती है -अरे बावरी गोपियाँ,अभी मेरा कन्हैया सो रहा है,इतनी जल्दी क्यों आ गई तुम सब?
अरे,हाँ,अब यहाँ जोरों से बातें मत करना,नहीं तो मेरा लाला जग जायेगा।

गोपियाँ कन्हैया को देखकर आनंदविभोर हो गई।
एक ने कहा,सोया हुआ कन्हैया कितना सुन्दर दिखाई देता है!
दूसरी ने कहा -लाला के केश कैसे घने और साँवले है। तीसरी ने कहा,उसकी उंगलियाँ कैसी कोमल है!
तो एक गोपी ने कहा,लाला के चरण ऐसे कोमल है कि पखारने का मन होता है।
एक गोपी लाला की आँखों की बात करने लगी तो दूसरी अधरोष्ठ की लालिमा की।

ये बातें गोपियाँ नहीं,भक्ति कर रही थी।
गोपियाँ तो भक्तिमार्ग की आचार्य है। भक्ति कैसे की जाए वह गोपियों ने दिखाया है।
यदि तुम्हे भक्ति करनी हो तो परमात्मा के एक-एक अंग का चिंतन करो।
गोपियाँ आज लाला के एक-एक अंग के दर्शन कर रही है।
गोपी की आँख और मन श्रीकृष्ण के एक-एक अंग में स्थिर है।

उतने में लाला ने करवट ली। यशोदाजी कहती है -अभी तो यह तीन महीने का भी नहीं हुआ और
करवट बदल रहा है,मुझे लगता है कि मेरा लाला भविष्य में बलवान होगा।
लाला के करवट बदलने पर यशोदाजी ने “अंग परिवर्तन” नाम का उत्सव मानाने का निर्णय किया।
‘उत’ का अर्थ है ईश्वर और ‘सव’ का अर्थ है प्राकट्य। उत्सव का अर्थ हुआ ईश्वर का प्राकट्य।
जब ईश्वर का  हमारे ह्रदय में प्राकट्य होता है,वह उत्सव ही है।
उत्सव मात्र लूली(जीभ) के लाड-प्यार के लिए नहीं,परमात्मा के साथ एक होने के लिए किया जाए।

यशोदाजी सोचती है -रोज तो ब्राह्मणों की पूजा करती हूँ वह ठीक है पर आज मुझे मेरी गोपियाँ और गोपाल की पूजा करनी है जिनके आशीर्वाद से पुत्र मिला है।
यशोदा ऐसा नहीं कहती कि यह गोपाल गरीब है,और मुझे उनकी मदद करनी है।

हरेक जीव ईश्वर का बालक है। जो ईश्वर का बालक है उसे अगर हम गरीब कहे तो ईश्वर को बुरा लगेगा।
ईश्वर के राज्य में कोई गरीब नहीं है। गरीबी और अमीरी तो कर्म की गति है।
कोई जीव को गरीब मानकर उसका अपमान करना वह ईश्वर का अपमान करने के समान है।
नम्रतापूर्वक,दीनतापूर्वक आँखे झुकाकर दान करो।
लेने वाला भी जीव है,उसके ह्रदय में भी परमात्मा का वास है,ऐसा समझकर दान दो।
इसी कारण से तो यशोदाजी दान करने की नहीं,पूजा करने की,सम्मान करने की बात की।
सहायता करना एक बात है और पूजा करना दूसरी बात है। दोनों में भावात्मक अंतर है।

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