Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-338



प्रभावती -आज मै क्यों छोड़ू तुझे? रंगे हाथ पकड़ा है। मै तुझे यशोदा के पास ले जाऊँगी।
कन्हैया - छोड़ दे मुझे।
प्रभावती का बेटा भी इस मंडली का सदस्य था। उसने सोचा कि यशोदा लाला को पिटेगी।
वह अपनी माँ से कहने लगा,माँ-कन्हैया को छोड़ दे,उसने चोरी नहीं की है। मैंने ही सबको बुलाया था।
मुझे जो चाहे सजा दे किन्तु लाला को छोड़ दे।  अब मै चार महीनों तक माखन नहीं खाऊँगा।

प्रभावती ने सोचा कि  अगर लाला को छोड़ दू तो यशोदाजी सच नहीं मानेगी कि लाला ने चोरी की है।
आज मुझे यशोदाजी को सच बताना है।
यशोदाजी लाला को डांटेगी तो कोई बात नहीं पर  लाला को मारने नहीं दूँगी। लाला मेरा भी है।

श्रीकृष्ण हाथ में आने के बाद उनका स्मरण करना चाहिए। पर यहाँ तो प्रभावती के मन में अभिमान आया है। प्रभावती के मन मे ठसक है कि लाला को मैंने पकड़ा है।
प्रभावती श्रीकृष्ण का स्मरण नहीं करती पर अपना स्मरण करती है। मनुष्य साधना करे तो ईश्वर हाथ में आते है। अगर साधना में निष्ठां न रहे और जीव अभिमानी हो जाए-तो ईश्वर हाथ से निकल जाते है।

कन्हैया के पकडे जाने से सभी मित्र रोने लगे। कन्हैया ने कहा-तुम चिन्ता मत करो। मै तो मजाक कर रहा हूँ। प्रभावती कन्हैया को पकड़ कर जा रही है। मार्ग में वृध्ध व्रजवासी आ रहे थे। प्रभावती ने घूँघट निकाला।
कन्हैया ने प्रभावती से कहा कि उसके हाथ में दर्द हो रहा है सो दूसरा हाथ पकड़ेगी तो अच्छा होगा।
प्रभावती हाथ बदलने गई तो कन्हैया ने इशारे से अपने मित्र को पास बुलाकर-उसका हाथ पकड़वा दिया।

इस प्रकार कन्हैया मुक्त हुआ। वह भागता हुआ माँ के पास आया और कहने लगा-माँ एक गोपी मुझे मारने
आ रही है। मैंने उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा है। माँ ने उसे अंदर कमरे में बैठने को कहा।
प्रभावती तो बड़े उमंग से चोर को पकड़ कर आ रही थी। उसने बाहर से ही चिल्लाते हुए कहा -यशोदाजी,
देखो,आपके कन्हैया को मै आज रंगे-हाथ पकड़ लाई हूँ। इस चोरको सज़ा देनी ही होगी।

यशोदाजी ने बाहर आकर कहा -अरी सखी,मेरा लाला तो अंदर है।
ईश्वर(परमात्मा) घर के(शरीर) अंदर (आत्मा-रूपी) है। जो अंदर है उसे मनुष्य बाहर खोजता है और दुःखी होता है। इन्द्रियरूपी गोपी कहती है कि -इश्वर (आनंद)  बाहर है,
जबकि यशोदा(निष्काम-बुध्धि) कहती है कि इश्वर (आनंद) अंदर है।
यशोदा-निष्काम बुध्धि ईश्वरानन्द को घर रूपी ह्रदय में ही निहारती है। इंद्रियां ईश्वर आंनद को बाहर ढूँढती है,अतः पा नहीं सकती। निष्काम बुध्धि ईश्वर को ह्रदय के भीतर ढूँढ़ती है,अतः शीघ्र ही पाती है।
जो जीव आंनदको सांसारिक विषयों में खोजता है उसकी दशा प्रभावती जैसी होती है।

यशोदाजी कहती है -अरी ,सखी! क्या तूं भांग पीकर आई है? तू तेरा घूँघट हटाकर जरा देख। तू किसे लेकर आई है। प्रभावती ने देखा तो उसकी ऊँगली पकड़ कर उसका बेटा खड़ा था।
वह द्विघा में पड़  गई कि -मैंने तो कन्हैया को ही पकड़ा था और यह कैसे हुआ।

प्रभावती के दृष्टांत के पीछे रहस्य है।

प्रभावती अभिमानी है। घमंड,अहंकार वाली बुध्धि ही प्रभावती है। ऐसी बुध्धि ईश्वर को कभी पा नहीं सकती। बुध्धि निष्काम बने तो ईश्वर को पा  सकती है।

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