पूतना ने अनेक बालकों का वध किया था। वे सब पूतना के स्तन-पान द्वारा प्रभु के पेट में पहुँचे।
अविद्या के संसर्ग में आये हुए जीवों का उध्धार सच्चे संतो की चरण रज के सिवाय हो नहीं पाता।
गोकुल में बहुत से ऋषि-मुनि गायों का अवतार लेकर आये हुए है।
उनके चरणों की रज मेरे पेट में जाने से वे सभी जीव मुक्त हो जायेंगे
अर्थात अपने पेट में बसे हुए उन जीवों का उध्दार करने के लिए ही कृष्ण ने मिट्टी -व्रजरज खाई थी।
गोकुल के पास यमुना किनारे जहाँ कृष्ण ने मिट्टी खाई थी और यशोदाजी को उनके मुख में ब्रह्मांड के दर्शन हुए थे सो उस घाट का नाम -ब्रह्मांडघाट रखा गया। इस घाट की मिट्टी मीठी है।
यात्रालुओ को यह मिट्टी चरणामृत में दी जाती है।
भागवतकथा मरते पहलेमनुष्य को आनंद (मुक्ति) देती है। इसी कारण से महात्मा मरने से पहले की मुक्ति को जीवन मुक्ति कहते है। शरीर और इंद्रियों की हयाती में जो मुक्ति मिले उसे जीवन मुक्ति कहते है।
जिसे मरने के बाद मुक्ति मिले उसे कैवल्य-मुक्ति कहते है। व्रजवासी को जीवन मुक्ति मिली है।
ज्ञानी पुरुष शरीर को एक आवश्यकता के रूप में स्वीकार करते है किन्तु वे यह भी स्पष्ट जानते है कि सांसारिक सुख भ्रामक है। वह केवल आभासित सुख है। पानी में रहर भी,पानी से अलिप्त रहते हुए कमलकी तरह,
ज्ञानी पुरुष भी संसार में रहते है किन्तु अलिप्तभाव से। बाह्य संसार की अपेक्षा आंतरिक संसार अधिक बाधक है। मन में से उसे मिटा देने पर ही भक्ति ठीक तरह से की जा सकती है।
नौका को रहना तो जल में ही है किन्तु यदि जल नौका पर सवार हो जाए तो नौका डूब जाती है।
संसार बाधक नहीं है किन्तु उसका चिंतन,उसकी आसक्ति बाधक है।
जगत रहेगा,जगत के विषय रहेंगे,शरीर रहेगा,और मन भी रहेगा। इसलिए महात्मा कहते है -जगत में रहो पर जगत को भगवद-दृष्टि से देखो। पर अज्ञानी जगत को भोग दृष्टि से देखते है।
माया का अर्थ है लौकिक नामरूप में आसक्ति।
भक्ति का अर्थ है अलौकिक नामरूप में आसक्ति।
भक्तिमार्ग में भावना और श्रध्धा के बिना सिध्धि मिल नहीं पाती।
दशम स्कन्ध में निरोध लीला है।
सभी सांसारिक विषयों में से मन हट कर जब ईश्वर से मिल जाता है तब मुक्ति मिलती है।
विषयसुख भुगतने के बाद उसके प्रति क्षणिक घृणा उत्पन्न होती है और वैराग्य आता है।
पर वह ज्यादा देर नहीं टिकता। अगर वह हमेशा के लिए रहे तो बेडा पार है।
मनुंष्य के मन में क्षणिक वैराग्य आता है पर माया ऐसी है जो उसे रहने नहीं देती।
कृष्ण लीला मन का निरोध करने के लिए है।
पूर्वजन्म का शरीर तो मर गया है किन्तु मन नया शरीर लेकर आया हुआ है। जीवात्मा मन के साथ जाता है।
सो शरीर की अपेक्षा मन की चिंता अधिक करनी है। मृत्यु के बाद भी मन साथ जाता है।
सो अन्य सभी की ओर आसक्ति कम करके मन की चिन्ता अधिक करो।