पर-मन यदि बिगड़ गया तो दूसरा मन किसी भी बाजार में नहीं मिलेगा।
जीवात्मा तन को छोड़ता है किन्तु मन को साथ ले जाता है। इसलिए मन को संभालो।
गीता में कहा है - जीवों में बसा हुआ मेरा अंश त्रिगुणमयी माया में स्थिर होकर मन-सहित पाँचो इंद्रियों का आकर्षण करता है। मन का आश्रय करके जीवात्मा ही इन विषयों का उपभोग करता है।
सो मनुष्य के मरने के बाद भी मन तो साथ ही होता है।
शरीर तो मरता है किन्तु मन नहीं मरता। मन तभी मरता है जबकि वह मनमोहनके साथ एकरूप हो जाता है अर्थात मुक्ति मिले तभी मन मरता है। विषयों की ओर दौड़ता हुआ मन मरता नहीं है।
मन यदि ईश्वर का चिंतन,ध्यान,मनन करे तो उसे पा सकता है।
किसी के गुरु होने की इच्छा मत करो। पहले अपने ही मन के गुरु बनो। रामदास स्वामी ने कहा है -
"हे मन! जिस भक्ति मार्ग से सज्जन लोग जाते है उसी का तू अनुसरण कर। तभी तुम्हे साहजिक्ता से श्री हरि मिलेंगे।" संसार के निंदनीय कामों का त्याग करो और वंदनीय कार्यमें एकाग्र हो।
समाधिकी अवस्था में मन पूर्णतः निर्विषयी हो जाता है,अहंभाव भी लुप्त हो जाता है।
श्रीमद शंकराचार्य शिवमानसपूजा स्तोत्र में कहते है -
आत्मात्वं गिरिजा मतिः सहचरा प्राणः शरीर गृहं
पूजा ते विषयोपभोग रचना निद्रा समाधि स्थितिः
हे शंभु,तुम मेरी आत्मा हो। बुध्धि पार्वती है। प्राण आपके गण है। शरीर आपका मंदिर है।
सभी विषय-भोगों की रचना आपकी पूजा है। निद्रा समाधि है।
निद्रा में मन विषयों की ओर नहीं जाता,निर्विषयी बनता है और जगत को भूलता है। जिससे निद्रा में सुख का अनुभव होता है। समाधि में भी जगत को को भूल जाते है। पर निद्रा और समाधि में फरक है।
समाधि में मन सर्व विषयों से हट जाता है और निर्विषयी बनता है। जबकि निद्रा में मन पूरा निर्विषयी नहीं होता। निद्रा में समाधि जैसा आनंद मिलता है पर निद्रा के आनंद को तमस माना है।
उसमे अहंभाव शेष रह जाता है। अहंभाव का लय नहीं होता।
समाधिके दो प्रकार है। जड़ और चेतन
योगी मन को बलपूर्वक वश करके प्राण को ब्रह्मरंध्र में स्थापित करता है। यह हुई जड़ समाधि किन्तु बलात्कार के बदले मन को प्रेम से समझा-बुझाकर विषयों से हटा लेना अधिक श्रेयस्कर है। यह है चेतन समाधि।
साहजिक समाधि श्रीकृष्ण लीला में ही है। कृष्ण कथा ऐसी है कि वह जगत को अनायास ही भुला देती है।
यह भागवत ग्रन्थ ऐसा दिव्य है कि सात ही दिनों में मुक्ति दिलाता है।
राजा परीक्षित इस ग्रन्थ का श्रवण करके सात ही दिनों में जगत को भुलाकर कृष्ण में तन्मय हो गए थे।
बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं को भी यह आशंका थी कि राजा परीक्षित मात्र सात ही दिन में मुक्ति कैसे पायेंगे?
मात्र सात ही दिनों में राजा का ज्ञान,भक्ति और वैराग्य बढ़े इस हेतु से ही यह कृष्ण कथा है।
कृष्ण कथा - कृष्ण लीलामें राजा का मन तन्मय हो तो सात दिन में मुक्ति मिले।