Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-342


इस जगत को भूलने के लिए योगी आँखे मूंद कर प्राणायाम करते है किन्तु जगत को भूलना आसान नहीं है।
जबकि गोपियों के लिए जगत को याद करना आसान नहीं है।
कृष्ण कथा में आँखे मूंदने,नाक पकड़ने या प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं है।
यह कथा तो -जगत को अनायास ही भुला देती है।

मन का निरोध तब होता है जब मन में जगत के कोई भी जीवके प्रति, विरोध नहीं होता।
मन में विरोध और वासना न रखो। जगत के भोग्य पदार्थों की वासना न रखो।
मनका निरोध होने पर अनायास ही मुक्ति मिल जाती है।
श्रीकृष्ण लीला से अनायास ही मन का निरोध हो जाता है।
जगतकी विस्मृति और भगवान की अखंड स्मृति ही निरोध है।

आगे पूतना  कथा में बताया था  कि -वासना आँखों में,कान में होती है इसलिए कृष्ण कथा में कान को जोड़ दो,
और आँखों को कृष्ण की रूप-माधुरी में स्थिर करो। श्री कृष्ण लीला निरोध लीला है।

थोड़ी देर के लिए सोच लो यह संसार सुन्दर है,फिर सोचो कि इसे जिसने बनाया है वह कितना सुन्दर होगा।
मनुष्य सौन्दर्य को देखने के लिए कश्मीर जाता है। पर वहाँ जाने की कोई जरुरत नहीं है क्योंकि सच्चा सौन्दर्य तो ईश्वर में है,अंतर में है। उसे अनुभव  करने की जरुरत है। उसे देखने का प्रयत्न करो।

परमात्मा के किसी भी स्वरुप में तन्मय होने पर मुक्ति मिल सकती है।
भागवत में ऐसा नहीं कहा है कि- मात्र श्री कृष्ण में लीन हो-
ईश्वर के कोई भी स्वरुप में तन्मय होने से मुक्ति मिलती है।
शंकराचार्य ने कहा है कि एक में अनन्य भक्ति रखो। और अन्य को अंशरूप मानकर उसे वंदन करो।
इस प्रकार अंशात्मक प्रेम रखो तो भक्ति में राग द्वेष नहीं आएगा और वही  अनन्य भक्ति होगी।

इस सिध्धांत को दृष्टान्त से समझते है।
नारी अपने पति के प्रति अनन्य प्रेम रखती है। पति के अन्य रिश्तेदार के प्रति वह अंशात्मक प्रेम रखती है।  
ऐसे अंशात्मक प्रेम से पति-प्रेम में कुछ न्यूनता होती नहीं है।
हमे अपने मनपसन्द प्रभु रूप से उस नारी की भाँति ही अनन्य रूप से भक्ति करनी है
और साथ ही साथ ईश्वर के अन्य रूपोंको भी आदर  देना है।

श्रीकृष्ण मुक्तिदाता है। मुक्ति आत्मा को नहीं,मन को मिलती है। आत्मा तो नित्य मुक्त है।
बंधनमुक्त तो मन को करना है। मन को मुक्ति मिलने के बाद आत्मा मुक्त होने का अनुभव करता है।
आत्मा को जब कोई बंधन ही नहीं है तो फिर मुक्ति का प्रश्न ही कैसे पैदा हो सकता है?
विषयों का बार-बार चिंतन करते रहने के कारण मन उसमे फँस जाता है और बंधन में आ जाता है।

आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है,अतः उसका बंधन तो एक कल्पना मात्र ही है।
कोई आत्मा को परमात्मा का अंश मानता है तो कोई इन दोनों को एक मानता है।
कुछ लोग आत्मा-परमात्मा में अंश-अंशी का भाव मानते है।

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