Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-343



जीव  ईश्वर का अंश है। भगवान ने गीता में कहा है -
ममैवांशौ जीवलोके।

इस सूत्र की व्याख्या करते हुए शंकराचार्य ने कहा है -”अंश इव जीव”  आत्मा ईश्वर के अंश जैसा है,अंश नहीं।
जीव ईश्वर का अंश हो नहीं सकता। ईश्वर के टुकड़े नहीं हो सकते। हाँ,परमात्मा और आत्मा एक है।
शंकर स्वामी ने कहा है-ईश्वरत्व में से कोई अंश विभक्त नहीं हो सकता।

घड़े में समाया हुआ आकाश और बाहर का आकाश एक ही है। फिर भी घट की उपाधि के कारण अंश-अंशी भाव का आभास होता है। इसी तरह परमात्मा और जीव एक होते हुए भी अलग-अलग दिखाई देते है।

यदि गुलाब के फूल की एक पंखुरी हम काट दे तो वह फूल अखंड नहीं रहेगा।
फूल का स्वरुप भंग हो जायेगा किन्तु ईश्वर नित्य होने के कारण वे तो अखण्ड ही रहेंगे।
उपासना के हेतु अंशी और अंश के भेद किए गए है,किन्तु तत्वतः दोनों एक ही है।
व्यवहार में अंश-अंशी भिन्न हो सकते है,तत्वतः नहीं।

सागर बिंदुओं से बनता है,सागर से बिंदु नहीं। बिंदु सागर नहीं है।
जीव ईश्वर रूप है।
रामानुजाचार्य आदि संतो के अनुसार परमात्मा अंशी है और आत्मा अंश।
कुछ आचार्यो के अनुसार जीव  मुक्तावस्था में अंशी है और आबध्धावस्था में अंश।
अंश-अंशी के भेद को मानते हुए भी वे दोनों को एक ही मानते है।

भक्त पहले द्वैत का नाश करके अद्वैत की साधना करता है
और फिर ईश्वर की सेवा करने के हेतु काल्पनिक द्वैत भाव रखता है।
ये दोनों सिध्धांत सच्चे कहे जा सकते है। साधक को चाहिए कि इन सिध्धांतो के खंडन-मंडन के पचड़े में न फँसे। यदि जीव ईश्वर का अंश है तो माया उसे कैसे बांध सकती है?
माया न तो सत् है और न तो असत।

जब तक हम स्वप्न से जगे नहीं है तब तक वह सत्य ही होता है। जागने के बाद स्वप्न असत्य हो जाता है।
इस प्रकार जब तक हम माया से आवृत है,तब तक माया सत्य होती है
और माया छिन्न-भिन्न होते ही वह असत्य सिध्ध हो जाती है।
माया जीव को भरमा सकती है,रुला नहीं सकती। जीवात्मा को कोई भी बंधन नहीं होता है। वह तो मुक्त ही है।
मन को ही बंधन है। मन के बंधन,अज्ञान के कारण आत्मा मान लेती है कि वह बंधी हुई है।
अज्ञान के कारण जीव  मान लेता है कि उसे किसी ने बांध लिया है।

लोग कहते है कि मेरा मन बिगड़ा,मेरे मन फँस गया।
कोई ऐसा नहीं कहता कि मैं बिगड़ गया हूँ,मेरी आत्मा भ्रष्ट हो गई है।
आत्मा तो मन का दृष्टा है,साक्षी है। मन को कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है,आत्मा के आदेशानुसार उसे काम करना
पड़ता है। मन नपुसंक है। मन को सुख-दुःख होता है,बंधन होता है,और उसका आरोप जीव अपने पर करता है।


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