वानरों को पकड़ने के लिए शिकारी ने एक युक्ति की। वन में जिस वृक्ष पर हो,उसके नीचे एक छोटे से मुँह वाले
घड़े में उसने चने भर के रखे। वानर अपने दोनों हाथों से चने निकालने का प्रयत्न करते थे किन्तु मुठ्ठी में
चने होने के कारण हाथ घड़े से निकाल नहीं पाते। वे मान लेते कि किसी भूत ने घड़े में छिप कर उनके हाथ पकडे है। वास्तव में किसी भी भूत ने हाथ नहीं पकडे थे। अगर मुठ्ठी खोल देते तो हाथ बाहर निकल सकते।
संसार भी एक ऐसा ही घड़ा है। मन,अहंता-ममता (आसक्ति) रूपी विषयों (चने)को अपनी मुठ्ठी में बंद रखता है और फिर मानता है कि किसी ने उसे बांध लिया है।
विषयों की ममता-अहम् की मुठ्ठी से मन ने पकड़ रखा है और स्वयं ही उसे छोड़ नहीं रहा है।
जीव का बंधन वानर के जैसा ही है। मनुष्य को किसने बाँधा है?
मन को किसी ने नहीं बाँधा है पर अज्ञान से आसक्तिवश होकर वह मानता है कि मै बंधा हूँ।
जीव परमात्मा का अंश है। उसे कोई नहीं बाँध सकता। पर अज्ञान और आसक्ति से उसे लगता है कि
वह बंधा हुआ है। अज्ञान का नाश होने से कोई बंधन नहीं रहता। आत्मा और परमात्मा एक ही है।
माया ने सांसारिक रूपी घड़े में विषयों के चने भर दिए है। चने को पकड़ो नहीं तो मुक्ति ही है।
कई बूढ़े लोग कहते है कि मै सभी तरह से सुखी हूँ,मुझे बंधन नहीं है,बच्चों के लिए अलग बंगले है।
बस अब एक बेटी की शादी हो जाये तो फिर गंगा किनारे जाकर रहू।
मनुष्य जितना बोलने में शयाना है उतना वर्तन में नहीं है। बेटी की शादी हो गई और उसके वहाँ भी बेटा हुआ
पर अब उसे गंगा-किनारा याद नहीं आता।
फिर बच्चे की माया लगती है और कहता है कि मै तो जाने के लिए तैयार हूँ पर बेटा मना करता है।
इधर बूढ़े के पुत्र सोचते है कि यदि बूढ़ा गंगा किनारे चला गया तो तो उसकी पेंशन की रकम से हाथ धोना पड़ेगा क्योंकि वह पेंशन के रूपये वहाँ मंगाएगा और साधु-संत में लूटा देगा। यदि वह घर में रहे तो रकम घर में ही खर्च होगी,बाजार से सब्जी लाएगा,हमारे बच्चों की देख-भाल करेगा।
आज बेटा मना करता है पर कल यमराज के घर से वारंट आएगा तो कहाँ चलेगा? वहाँ तो जाना ही पड़ेगा।
समझ कर छोड़े वह सुखी होता है। जबरदस्ती से छोड़ने पर दुखी होता है। काल धक्का मारे और रोते -रोते घर छोड़ो,उसके बदले सावधान होकर समझपूर्वक छोड़ना अच्छा है। त्याग अगर बुध्धिपूर्वक हो तो वह सुख देता है।
जीवात्मा को किसी ने बांधा नहीं है। वह खुद अपने आप को बांधता है और दोष दूसरों को देता है।
मन यदि विषयों मेंसे हटकर ईश्वर का चिंतन करने लगे तो मुक्ति मिलती है। मन संसार को भूल जाए तो मुक्त ही है। संसार के विषयों में से मन हट जाए तो समाधि जैसा ही आनंद है।
देहाध्यास छूटा और वृत्ति ब्रह्माकार हुई तो मुक्ति ही है।
विषयों का चिंतन करने वाला मन अशुध्द है। विषयों का चिंतन छोड़ दे तो मन शुध्ध है। अनादिकाल से विषयों का चिंतन करते रहने की मन को आदत सी हो गई है। यदि यहीं मन श्रीकृष्ण-कथा का चिंतन,श्रवण,मनन करने लगे तो विषयों का विचार करने की आदत छूट सकती है।