Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-345



इन्द्रियों के स्वामी है श्रीकृष्ण।  आँख,कान तथा सर्व इंद्रियों का संबंध श्रीकृष्ण से जोड़ो।
सर्वत्र और सभी में ईश्वर के दर्शन करो। इन्द्रियरूपी गोपी का आत्मा के साथ मिलन  करना है।
पाँच इन्द्रियों के विषय भी पाँच है।
यदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से अलग हो जाये तो आत्मा के साथ उनका मिलन होगा।
महात्मा कहते है कि इन्द्रियरूपी गोपी का विवाह प्रभु के साथ करो।

गोकुल-लीला का तात्पर्य है गोपियों की जीते-जी मुक्ति।
श्रीकृष्ण ने गोपियों को जीते जी ही मुक्ति दिलाई थी इसलिए तो उसे गोकुल लीला कहते है।
किसी भी प्रकार की साधना,धारणा किये बिना गोपियों के मन का निरोध श्रीकृष्ण में हुआ।
इसलिए गोपियाँ भक्तिमार्ग की आचार्य है।

महाप्रभुजी ने कहा है कि  मैंने कुछ नहीं बताया,मै  तो बस गोपियों को मार्ग बताता हूँ।
लौकिक रूप के प्रति जितनी आसक्ति है उतनी यदि भगवान में हो जाए तो संसार के बंधन छूट जायेंगे।
श्रीकृष्ण का सौंदर्य ही ऐसा है कि उसे देखने के बाद जगत का सौंदर्य सुहाता नहीं है। श्रीकृष्ण अति सुन्दर है।
जगत सुन्दर है ऐसा मानने से काम दृष्टि पैदा होती है।
श्रीकृष्ण एक एक इंद्रियों को विषयों से हटाकर अपनी ओर खींच लेते है।

महात्मा लोग कहते है -”भगवान को रोज प्रार्थना करो -हे नाथ मेरा मन श्रीकृष्ण के सिवाय और किसी में न जाए। “
मन को तब शान्ति मिलती है जब वह ईश्वर में स्थिर होता है।

वेदान्ती मन को अर्धचेतन और अर्धजड मानते है। संकल्प करने से मन हजारों मील दूर पँहुच जायेगा।
उसी मन का लय मात्र ईश्वर में ही होगा। मन का लय कोई जड़ पदार्थ में नहीं होता।

संसार के सभी पदार्थ नाशवान है। संसार का अर्थ है - जो क्षण-क्षण मर रहा है
वह मन ईश्वर में ही जाकर विलीन हो सकता है,अन्य किसी पदार्थ में नहीं।
ईश्वर से मन दूर जाए वह बंधन, ईश्वर के चरण में मन रहे वह मुक्ति।
गोपियाँ ईश्वर में मन रखकर सभी कार्य करती थी। ईश्वर में मन लगा रहे उसके लिए भगवान की लीला है। भगवान लीला करते है उसका यह तात्पर्य है।

दशम स्कन्ध की कृष्ण लीला,जगत का विस्मरण और प्रभु का अखंड स्मरण कराती है।
श्रीकृष्ण(ईश्वर) में मन को लगा देने से जगत को भुलाया जा सकता है।
शरीर  चाहे कहीं भी हो,मन को गोकुल-वृन्दावन में बसाए रखो।

बुध्धि परमात्मा को पकड़ नहीं सकती
"नायमात्मा प्रवचेन लभ्यो न मेघ्या न बहना श्रुतेन।
यमैवैष व्रणतै तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुस्याम्।"

परमात्मा न तो वेदाध्ययन से मिलते है,न तो शास्त्रश्रवण स्य बुध्धि-चातुर्य से। परन्तु जो आत्मा को प्राप्त  करना चाहता है उसे ही मिलता है। परमात्मा जिसे अपना मानते है,अपनाते है,उसे ही परमात्मा मिलते है।

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