Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-356



नंदबाबा सोचते है कि-कितनी मन्नते रखने के बाद बेटा हुआ है और उसकी  माँ को कोई कदर ही नहीं है।
उन्होंने कन्हैया को छोड़ा है और कहा -बेटा ,तेरी माँ ने तुझे बाँधा था और मैंने छोड़ा है। अब बता तू किसका बेटा ? कन्हैया बोला - अब तक मै माँ का बेटा था,पर आज से मै आपका बेटा।

पहले जब नंदबाबा पूछते कि -लाला तू किसका बेटा? तो कन्हैया कहता -मै माँ का बेटा  हूँ।
आज जब लाला ने कहा कि मै आपका बेटा हूँ तो नंदबाबा को आंनद हुआ है।
नंदबाबा की इच्छा थी कि लाला एक बार उन्हें कहे कि मै आपका बेटा हूँ। आज उनकी इच्छा पूरी हुई है।

यशोदाजी ने सोचा-गोपियाँ और लाला के बालमित्र सभी रो रहे थे। सभी ने मुझे बांधने के लिए मना किया था पर
फिर भी मैंने निष्ठुर होकर उसे बांधा। मैंने यह ठीक नहीं किया। अब लाला भी मुझसे नाराज है।
यशोदाजी रोने लगी कि कब बेटा मेरी गोद में आएगा?

लाला ने देखा कि माँ रो रही है। भक्तका रोना प्रभु  से सहा नहीं जाता। कोई भी जीव परमात्मा के लिए रोए तब परमात्मा को दया आती है। जो जीव उनके लिए रोता है प्रभु उनके लिए दौड़ कर आते है।

लाला ने माँ को रोये हुए देखा वह उनसे सहा नहीं गया और दौड़ते हुए गए है।
वे माँ के गोद में बैठकर पीतांबर से माँ के आँसू पोंछने लगे। माँ ने भी प्यार से कहा -मेरा बेटा कितना सयाना है। मैंने तुझे बांधकर अच्छा नहीं किया था। मेरी भूल हो गई। लाला,मैंने तुझे बाँधा वह मन में मत रखना। तू इसे भूल जाना।

कन्हैया माँ से कहता है -माँ,मै सब कुछ भूल जाऊँगा पर तूने मुझे बाँधा था वह कभी नहीं भूलूँगा।
माँ तेरा आशीर्वाद से मै थोड़े समय के बाद द्वारका का राजा बनूँगा। सोलह हज़ार रानियों का पति बनूँगा,
पर मै यह हमेशा याद रखूँगा कि तूने मुझे बाँधा था। मै तुझे छोड़कर जाऊँगा पर तेरा प्रेम कभी नहीं भूलूँगा।
माँ, मै तेरा परम बंधन कभी नहीं भूलूँगा। माँ मै रूक्ष्मणि,सत्यभामा और किसी का भी नहीं,
पर तेरे  प्रेम-बंधन में हमेशा रहूँगा। मै उसे हररोज़ याद रखूँगा।

गोकुल की यह मुख्य लीला है। (दामोदर लीला)
इस लीला में लालाजी ने वात्सल्यभाव  की पराकाष्ठा बताई है।
यशोदाजी के भाग्य की प्रशंसा जितनी करो उतनी कम है। पुत्र बन उनके स्तन के दूध का पान करना,
उनके हाथो से बंधना ,इससे ज्यादा भागयशाली कौन हो सकता है?

यशोदाजी की प्रशंसा सुनकर सूतजी बोले -यशोदाजी और नंदजी ने ऐसे क्या पुण्य किये होंगे जिनसे उन्हें प्रभु के माता -पिता बननेका सौभाग्य मिला। सूतजी नन्द-यशोदा के पूर्व जन्म का स्मरण करे हुए बोले -

द्रोण  नामक एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी धरा के साथ एक झोपड़ी में रहता था। दोनों भागवत भक्त थे।
द्रोण सेवा-पूजा करके भिक्षा माँगने जाता और भिक्षा में जो आता वह धरा को रसोई बनाने के लिए देता।
घर के आँगन में आया कोई अतिथि-अभ्यागत और अपने पति को खिलाकर जो बचता वह धरादेवी खाती।
अगर कुछ न  बचता तो पानी पीकर संतोष मानती। उनके कोई सन्तान नहीं था।


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