Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-357



एक बार द्रोण भिक्षा मांगने गए तब द्वार पर एक युवान पुरुष अपने माँ-बाप को लेकर झोपड़ी में आया।
युवक ने कहा -मेरे वृद्ध मत-पिता भूखे है। क्या उनके लिए कुछ खाना मिलेगा?
घर में कुछ नहीं था इसलिए धरादेवी ने युवक से कहा -मेरे पति भिक्षा लेने गए है। आप विश्राम करो।
उनके आने पर आपको खिलाऊँगी।
आज द्रोण को आने में देर हो गई तो युवक ने कहा -मेरे माता-पिता को अगर जल्दी खाना नहीं मिलेगा तो
वे मर जायेंगे। में और कहीं जाऊँगा।

धरादेवी ने अपने पति से सुना था कि अतिथि ईश्वर रूप होते है। उनका अनादर नहीं करना चाहिए।
द्वार पर आया अतिथि अगर निराश होकर वापस जाए तो उसके पुण्य का क्षय होता है।
इसलिए धरादेवी ने उस युवक से कहा -मै पास के गाँव जाकर सीधु--सामग्री लेकर आती हूँ।

धरादेवी पासके गाँव जाकर बनियेकी दुकानसे सभी सामग्री  ली। उन्हें पता नहीं था कि इन सब के पैसे देने पड़ेंगे। बनिए ने पैसे मांगे। धरादेवी ने कहा-मेरे पास पैसे नहीं है।
धरादेवी सुन्दर थी।बनिए को उसके रूप के मोह लगा। उसने कहा आपके पास जो है वह दो।
धरादेवी कुछ समझी नहीं। बनिए ने उसके स्तन की तरफ हाथ बताया। धरदेवी समझी के यह स्तन मांग रहा है। उन्होंने दोनों स्तन काटकर उसे दे दिए और सीधु-सामग्री लेकर घर आई।

वह युवक विष्णु भगवान थे। और साथ  में शिव-पार्वती थे। वे प्रसन्न हुए। भगवान ने कहा -हमारे लिए आपने
अपने स्तन का दान किया है इसलिए अगले जन्म में स्तनपान करने के लिए मे आपके यहाँ पुत्र होकर आऊँगा।
अगले जन्म में धरादेवी हुए यशोदा और द्रोण बने -नंदजी।
यशोदाजी पुण्यशाली है कि परमात्मा को स्तनपान कराती है और परमात्मा बांध भी सकती है।

ज्ञानी-भक्त प्रेम-डोर से प्रभु को बांध सकते है। भगवान केवल प्रेम के ही वश हो पाते है। परमात्मा जीव मात्र को अपने प्रेम से सराबोर करते है किन्तु जीव इतना दुष्ट है कि प्रभु के साथ प्रेम ही नहीं करता।
प्रभु के प्रति प्रेमको जगानेके लिए प्रभुके उपकारों का बार-बार स्मरण करो कि मै परमात्माका  ऋणी हूँ।
ऐसा विचार बार-बार करोगे तो प्रभु से प्रेम हो सकेगा।

प्राप्त स्तिथि में संतोष मानोगे तो प्रभुप्रेम का उदय होगा। परमात्मा से कुछ न मांगो।
और उनके  उपकारोको कभी मत भूलो। मनुष्य का प्रेम धन,घर-गृहस्थी,परिवार आदि में विभक्त होता है।
अतः प्रभु प्रसन्न नहीं होते। लोग भगवानको प्रणाम करते समय भगवान को नहीं,पर अपने वस्त्रों पर ध्यान देते है। अरे,वस्र बिगड़ जायेंगे तो दूसरे आएंगे पर ह्रदय तो बाजार से दूसरा नहीं आएगा।
पैसे से परमात्मा नहीं मिलते। मात्र प्रेम से परमात्मा मिलते है। भक्तजन प्रेम से परमात्मा को वश में करते है।
पूर्ण प्रेम के आगे परमात्मा दुर्बल बनते है। ऐसी है भक्ति की महिमा।

ज्ञानी माया के आवरणयुक्त ब्रह्म के दर्शन करते है। ज्ञानीको कीर्ति आदिकी चाह होती है।
निरावृत,आवरणरहित ब्रह्म का साक्षात्कार तो केवल गोपियों ने ही किया है।
जब तक जीव  निर्दोष नहीं हो पाता तब तक ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाता।
साधु बनने की नहीं पर सरल होने की आवश्यकता है। अंदर के विकारों को दूर करना है।

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