Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-360



गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है -
हे अर्जुन,तू जो कुछ कर्म,भोजन,हवन,दान,तप आदि करे,वह सब मुझे अर्पण कर। तभी तू मुझे पा सकेगा।

सभी कर्म भगवान् को अर्पण करो। किये हुए कर्मो का पुण्य-फल कृष्णार्पण करो।
फल स्वयं भोगने की इच्छा न करो। फल पर तुम्हारा अधिकार ही नहीं है।
जो अपना फल भगवान को अर्पण करता है,उसकी बुध्धिरुपि टोकरी ब्रह्मज्ञान के रत्नो से भर जाती है।

लाला की गोकुल लीला यहाँ समाप्त होती है।
बाल लीला का श्रवण श्रध्धा उत्पन्न करता है। श्रध्धा के बढ़ने से प्रभु में आसक्ति होती है।
यह आसक्ति भक्ति बनती है जिसे महात्माओं प्रेमलक्षणा भक्ति कहते है।

अब वृन्दावन लीला शुरू होती है।
बालकृष्ण पाँच वर्ष के हुए है। बालकृष्ण को वृंदावन जाने की इच्छा है।
गोकुल में जो उत्पात हो रहे थे उनसे व्यथित होकर उपनंद चाचा ने सोचा कि बालकों के साथ दूसरे गाँव जाकर रहना चाहिए। यहाँ से कुछ दूर वृंदावन रहने योग्य है। सभी को यह प्रस्ताव अच्छा लगा।
बलराम-कृष्ण को भी आनंद हुआ है। सब वृंदावन में आकर बसे है।

वृन्दा का अर्थ है भक्ति। सो भक्ति का वन  वृंदावन है।
महात्माओं कहते है -
बालक पाँच वर्ष के होने पर उसे गोकुल में से वृंदावन में ले जाया जाये। उसे धर्म और भक्ति के संस्कार देने चाहिए। अपने बालक को अच्छे संस्कार न देने वाले माता-पिता उसके वैरी है। बालक का ह्रदय,मन बहुत कोमल होता है,अतः उसे दिए हुए संस्कार उसके मन में अच्छी तरह जम जाते है।
उसे बचपन से अच्छे संस्कार दोगे तो उसका यौवन भ्रष्ट नहीं होगा और जीवन-भर वह संस्कारी बना रहेगा।

ग्यारहवें अध्याय में कृष्ण “वत्सपाल” बने है और गायों को चराने ले गए है।
इसलिए पन्द्रहवें अध्याय में भगवान “गोपाल” बने है (गायों को चरते है वह गोपाल)
जमुना के किनारे श्रीकृष्ण गाये चराते है और उपनंदचाचा बाँसुरी बजाते है।
लाला ने उपनंदचाचा से कहा -चाचा मुझे बाँसुरी दो,मुझे भी आपके जैसी बांसुरी बजानी है।

उपनंदचाचा बोले - बेटा मेरे जैसी बाँसुरी तू नहीं बजा सकता।
मै चालीस साल से बज रहा हूँ तब इतनी मेहनत के बाद अच्छी बाँसुरी बजा सकता हूँ।
मेरे पास एक ही बाँसुरी है,पर जंगल में से बांस काटकर तुझे नई बाँसुरी बनाकर दूँगा।

जंगल में घूमते-घूमते लाला ने बांस बताया। उपनंदचाचा बांस काटने गए।
पर वहाँ जाकर देखा कि देवों ने पहले से ही वहाँ तैयार बाँसुरी रखी थी।
उपनंदचाचा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने लाला को कहा -लाला तेरे लिए यहाँ किसी ने बाँसुरी पहले से ही रखी है। ले यह बाँसुरी। अब मै बजाऊँगा और तू सीखना।

लाला ने जैसे ही होंठ पर बाँसुरी रखी  कि अंदर से मधुर ध्वनि आने लगी। यह सुनकर गाये हुँम्भ -हुँम्भ करती दौड़कर आई। उपनंदचाचा को फिर आश्चर्य हुआ कि ऐसी बाँसुरी तो मुझे भी बजानी नहीं आती।

श्रीकृष्ण आज मुरलीधर हुए है। श्रीकृष्ण आज बाँसुरी बजाते है और बंसी की ध्वनि के आकर्षण से जीवमात्र को अपनी ओर बुलाते है। पर मोह और विषयों में फंसे हुए जीव को यह ध्वनि सुनाई नहीं देती।

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