Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-361



अब वत्सासुर और बकासुर नामक दो राक्षसों की कथा आती है।
यमुना(भक्ति) के किनारे तो बाधाये उपस्थित होती है,एक है वत्सासुर(अज्ञान,अंधश्रध्धा) (२) बकासुर- (दम्भ)।

कई अज्ञानी और मात्र अंधश्रध्धा वाले लोग टीले-टपके और गले में माला पहन जगत को बताने के लिए घूमते है कि वे महान भक्त है। वे दंभ से दूसरों को फँसाते है। इससे तो जो नास्तिक है वह ज्यादा अच्छे है क्योंकि वे दूसरों को नहीं फसाते। जिसका बाहरी चोला तो अच्छा हो किन्तु अंतर तथा करनी मैले हो,वह बकासुर है।

बगुला दंभ का प्रतिक है। बगभगत अर्थात दम्भी।
बगुले की चोंच है लोभ। कीर्ति और धन का लोभ अपने साथ दम्भ भी ले अाता है।
यमुना- भक्ति के किनारे बगुला दम्भ के आने से सारा खेल बिगड़ जाता है।
भगवान ने वत्सासुर और बकासुर का वध किया।

एक बार श्रीकृष्ण अपने बालमित्रों के साथ वन में बछड़े चराते हुए खेल रहे थे। उन बालमित्रों के सद्भाग्य का वर्णन किन शब्दों में करे कि जिनको श्रीहरि के साथ खेलने का सुअवसर मिला है। जिनके दर्शन के लिए योगी और ऋषि-मुनि तरस रहे हो,उसी परब्रह्म के साथ वे गोपबालक खेल रहे थे।

सभी बालक खेल-कूद में लगे हुए थे। इतने में वहाँ  अधासुर नाम का राक्षस अजगर का रूप लेकर सभी गोपबालको को निगल जाने की इच्छा से मार्ग में मुँह फाड़  कर बैठा है। उसके खुले हुए विशाल मुख  को उन बालकों ने पर्वत की गुफा मान लिया और उसमे प्रवेश करने का सोचा।
उन्होंने कन्हैया से कहा,यदि तू हमारे साथ चलेगा तो हमे डर नहीं लगेगा। बालको का नियम है कि श्रीकृष्ण के बिना  वे कही भी नहीं जाते। कृष्ण साथ होते है तो उन्हें डर नहीं लगता।बालक जानते है कि कन्हैया उनके साथ होगा तो डरने की कोई बात नहीं है। कृष्ण को साथ लेकर वे सभी गोपबालक नाचते-कूदते और ताली बजाते अंदर चले गए। उनकी रक्षा के हेतु कृष्ण भी अधासुर के उदर में चले गए।

भागवत में समाधि भाषा का प्रयोग बहुत किया गया है। लौकिक भाषा गौण है।समाधि भाषा का अभ्यासी भागवत का अर्थ समझ पायेगा।  ताली “नादब्रह्म” है। ताली बजाते बालक पहले नादब्रह्म में लय पाते है और फिर परब्रह्म में। जब नादब्रह्म और नामब्रह्म एक होता है,तब परब्रह्म का प्राकट्य होता है।

अधासुर के पेट में जाकर प्रभु ने महिमा शक्ति से विशाल रूप धारण किया। अधासुर के प्राण ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल गए। सभी बालक भी श्रीकृष्ण के साथ बाहर आ गए।

अध शब्द का अर्थ है पाप। अधासुर पाप का स्वरुप है। जो पाप में रममाण रहता है,वही अधासुर है। पाप करने में सुख मानने वाला व्यक्ति अधासुर है। कई बार पापी व्यक्ति सुख में जीता हुआ दिखाई देता है किन्तु पाप के कारण नहीं,उसके किसी पूर्वजन्म के पुण्य  के कारण ही उसे वह सुख मिला होता है। अन्यथा पाप का परिणाम तो दुःख ही है। पापी न तो कभी सुखी हुआ है और न कभी होगा।

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