नीचे बैठे हुए कृष्ण और गोपबालक आदि की मन में कल्पना करोगे तो आनंद मिलेगा।
तन चाहे जहाँ भी हो पर मन तो ईश्वर में ही होना चाहिए।
ज्ञानी मानते है कि ब्रह्म ( ईश्वर) निर्विकार-निर्गुण है। वे खाते या चलते नहीं है। जो ज्ञानी यह कहते है कि परमात्मा खाते नहीं है,और वे ज्ञानी अपने लिए तो खाते ही है। इसलिए परमात्मा कहते है कि इन ज्ञानियों के यहाँ रहकर मुझे नित्य एकादशी(उपवास)करना पड़ता है। ज्ञानी खुद भोजन करते है और मुझे भूखा रखते है।
निराकार परमात्मा खाते नहीं है यह वेदांत का सिध्धांत दिव्य और सच्चा है।
इन व्रज बालकों में से एक था ऋषि शांडिल्य और पूर्णमासी का पुत्र मधुमंगल। कन्हैया ने उससे कहा,तू रोज हमारे घर का खाता है किन्तु अपने घर का कभी नहीं खिलाता। तेरे घर जाकर जो कुछ हो वह लेकर आ।
तब मधु मंगल,अपने घरसे कुछ लाने के लिए -वहां से -घरकी ओर चल पड़ा।
भक्ति उसकी सफल है जिसके घर का परमात्मा माँग कर खाए।
शांडिल्य ऋषि ब्राह्ममुहूर्त में उठते है और उनका नितयकर्म रात्रि के आठ बजे समाप्त होता था।
प्रातःकाल में वे गायत्री मंत्र की चौबीस माला फेरते,पंच देवों की पूजा,अभिषेक,विश्वदेव,यज्ञ होम,
मध्यान्ह संध्या,विष्णुसहस्त्रनाम पाठ और अंत में भगवान के नामों के इक्कीस जप। इतना सब करते शाम हो जाती। इस तपस्वी ब्राह्मण को खाने तक का समय नहीं मिलता था। सो वे रात्रि के समय फलाहार करते थे।
एक बार भजन में आनंद मिल जाए तो संसार का आनंद फिक्का लगता है।
इस जिव को भजन में आनंद नहीं मिलता इसलिए अन्य विषयों में आनन्द ढूँढ़ता है।
पति शांडिल्य ऋषि भोजन नहीं करते इसलिए पत्नी पूर्णमासी भी फलाहार से चला लेती है।
घर में एक बेटा मधुमंगल है। अभी छोटा है। जनोई नहीं दी इसलिए नंदबाबा के घर खाने जाता है।
यशोदाजी वैश्य है इसलिए उन्होंने शांडिल्य ऋषि से कहा था कि जब तक मधुमंगल को जनोई न दो तब तक
वह हमारे यहाँ खायेगा। पंडितका बेटा है इसलिए यशोदाजी उसे प्रेम से खिलाती है।
इस तरफ मधुमंगल दौड़ता हुआ घर आया है और माँ से कहा -माँ लाला को आज हमारे घर का खाना है।
माँ आपने जो भी बनाया हो वह मुझे लाला के लिए दे।
पूर्णमासी ने कहा -तेरे पिता रोज़ उपवास करते है। घर में रसोई नहीं बनती इसलिए घर में कुछ नहीं है।
पूर्णमासी को दुःख हुआ कि आज कन्हैया खाना माँग रहा है और गरीब ब्राह्मण के घर में कुछ नहीं है।
पवित्र ब्राह्मण अपने घरमें किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करता।