कालियनाग के तो मुख में ही विष था,हमारी तो एक-एक इन्द्रिय में और मन में विष भरा है।
जैसे,एक व्यक्ति हमे आँखों का काँटा लगता है तो दूसरा रतन। ऐसे रागद्वेष,विषय,विकार आदि विष ही तो है।
जब तक इंद्रियां वासनारूप विष से भरी हुई है तब तक भक्ति नहीं हो पाएगी।
सत्संग से इस विष को कम करना है।
इस कथा का रहस्य है -
जिस तरह धेनकासुर देहाध्यास का रूप था उसी तरह कालियनाग इंद्रियाध्यास का रूप है।
यमुना-भक्ति में इंद्रियाध्यास आये तो शुध्ध भक्ति नहीं हो पाती।
भोग और भक्ति पारस्परिक शत्रु है। भक्ति के बहाने इंद्रियों को बहलाने वाला कालियनाग है।
इंद्रियों का नाश नहीं,दमन करना है। उन्हें विवेक से वश में करना है। इंद्रियों को सत्संग कराओ।
उन्हें जब भक्ति-रस की प्राप्ति होगी तभी वे शुध्ध होगी। भोग से इंद्रियों का क्षय होता है और भक्ति से पोषण।
भक्तिमार्ग के आचार्य वल्लभाचार्यजी,रामानुजाचार्यजी,चैतन्य महाप्रभुजी वगेरे परिपूर्ण वैरागी थे,
इसलिए वे भक्ति कर सके। वैराग्य के बिना भक्ति नहीं हो सकती।
भक्तिमार्ग अत्युत्तम है। इसमें इंद्रियपुष्प को भगवान के चरणों में रखना है। ज्ञानमार्ग में इंद्रियों से संघर्ष करना पड़ता है। इंद्रियों को समझा-बुझाकर इन्हे प्रभुमार्ग की ओर मोड़ देना अत्युत्तम है।
यमुना के जल में से कन्हैया सकुशल बाहर निकला तो सबको हर्ष हुआ। उन्होंने यमुना किनारे ही रात्रि वास किया। उस समय दावाग्नि फैली और व्रजवासी दावाग्निसे घिर गए तो भगवान ने दावाग्नि का पान करके सबको बचा लिया।
श्रीकृष्ण ने दो बार दावाग्नि का पान किया है।
दूसरी बार जब बालगोपाल खेल-कूद में व्यस्त थे तब गाये चरती हुई दूर निकल गई। गायों को ढूँढ़ते हुए सभी बालक दावानल में खो गए। तब श्रीकृष्ण ने विराट रूप धारण किया और दावानल पी गए।
संसाररूपी दावाग्नि चारो ओर से धधक कर जीवको भी घेर लेती है।
गरीबी दावाग्नि है। संतान न हो तो दावाग्नि है,सभी तरह के और दुःख भी दावाग्नि है।
मनुष्य भी जब ऑफिस से घर आता है और देखता है कि माँ और पत्नी के बीच झगड़ा चल रहा है,
तब उसे पता नहीं चलता कि किसका पक्ष ले। यह सांसारिक दावाग्नि है।
ऐसे समय में उन गोप-बालकों की भाँति,आँखे बन्द करके भगवान के शरण में जाओ।
वे सब दुःखो को पी जायेंगे,दूर कर देंगे। प्रभुका नाम-जप सांसारिक दावाग्निको बुझा देगा।
सुहावनी शरद ऋतु आई। वृन्दावन की शोभा अनोखी हुई है। मन्द-मन्द सुगन्धित हवा बह रही थी।
भगवान् ने गायों और गोपालों के साथ वृंदावन में प्रवेश किया। गायों को चराते हुए कृष्ण बंसी बजाने लगे।
गोपियाँ बंसी के संगीत में लीन हो गयी।
कन्हैया की बाँसुरी सुनकर,उनकी मधुर तानका जो गोपियों ने वर्णन किया है,वही "वेणुगीत" है।