बाँसुरी नाद ब्रह्म की उपासना है। नाद ब्रह्म की उपासना के बिना प्रभु के दर्शन नहीं होते।
कन्हैयाकी बाँसुरीका नाद जब तक सुनाई न दे तब तक कन्हैया के दर्शन नहीं होते।
कन्हैया की मधुर बाँसुरी का नाद सुनते ही गोपियों को समाधि लगी है।
मधुर नाद में मन का लय करने के लिए यह वेणुगीत की कथा है।
वेणुनाद का आंनद ऐसा है कि जिसके सामने विषयानन्द और ब्रह्मानन्द भी तुच्छ है।
इस नादब्रह्म के समक्ष सभी आंनद निकृष्ट है।
वेणुगीत में प्रत्येक श्लोक बोलनेवाली गोपी भिन्न-भिन्न है।
श्रीधर स्वामी कहते है कि श्लोक की भिन्न-भिन्न गोपियाँ होने के कारण
सभी श्लोक एक-दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं रखते।
श्रीकृष्ण गिरिराज में बांसुरी बजाते है,वह गोपियाँ अपने घर में बैठे-बैठे सुनती है।
ऐसा कहते है कि जब भक्ति बढ़ती है तब दूरदर्शन और दूरश्रवण की शक्ति आती है।
गोपियों की भक्ति बढ़ी है,इसलिए उन्हें ये दोनों सिध्दियां प्राप्त हुई है।
पहले तो गोपिया लाला के दर्शन करने नंदबाबा के महल में जाती थी। अब उन्हें उसकी जरुरत नहीं है।
गोपियों को घर में ही श्रीकृष्ण के दर्शन होते है।
लाला की वन लीला और उसकी बंसरी घर में बैठे-बैठे सुन सकती है।
घर का काम खत्म करके सभी गोपियाँ इकठ्ठी होकर सिर्फ लालाकी ही बाते करती है।
एक गोपी कहती है -
हमारे नयनयुक्त जीवन की यही सफलता है कि
जब श्यामसुंदर कृष्ण और गौरसुंदर बलराम,
गोपबालको के साथ वन में गाये चराने के लिए आते-जाते हो,
अपने होठ पर मुरली धारण किये हो,
और हमारी ओर प्रेम-भरी तिरछी चितवन से देख रहे हो,
उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान कर सके।