मैंने सुना है कि जब वह भोजन करने बैठता है,तब बाँसुरी को कमर की फेंट में रखता है
और जब सोता है तब भी अपने साथ ही रखता है। इसलिए बांसुरी कृष्ण की पटरानी है।
बांसुरी को कन्हैया का नित्य संयोग प्राप्त हुआ है।
इस बाँसुरी ने अपने पूर्वजन्म में न जाने कौन सी तपश्चर्या की है
कि उसे कृष्ण के अधरामृत का नित्य पान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ?
एक गोपी ने बांसुरी से पूछा -अरी सखी,तूने ऐसा कौन सा पुण्य कमाया था कि प्रभु ने तुझे अपनाया है?
बाँसुरीने कहा - मैंने बड़ी तपश्चर्या की और दुःख सहन किया है। मैंने छः ऋतुओं की मार सही है।
मेरा ह्रदय कोमल है। मेरे ह्रदय में कुछ नहीं है फिर भी लोगों ने मुझे खुदेड़ कर मेरे में सात छेद किये है।
मै अपनी इच्छानुसार नहीं बोलती। मालिक की इच्छासे उसे जो बुलाना हो वह बोलती हूँ और सूर निकालती हूँ।
बाँसुरी ने बहुत कुछ सहन किया,तभी प्रभु के सन्मुख हो पायी है।
जो सोच-विचार कर दुःख सह लेता है,उसके पाप जल जाते है।
बंसी की तरह,मालिक की इच्छानुसार मधुर बोलो। किसी के दिल को चोट लगे ऐसा कभी मत बोलो।
लकड़ी की मार तो भुलाई जा सकती है किन्तु शब्दों की मार हमेशा याद रह जाती है।
कभी कुछ कठोर भी बोलने का समय आ जाये पड़े तो भी प्रेम से बोलो।
एक और सखी बोली -देख तो सही,बाँसुरी के स्वर को सुनकर ये वृक्ष भी शहदकी धारा बहा रहे है।
कन्हैया के बाँसुरीवादन से वृक्षों को आनंद होता है।
वृक्षों ने कन्हैया के साथ सम्बन्ध जोड़ा है। वृक्ष कहते है कि-बाँस हमारी (वृक्ष) जात का है।
और उसकी पुत्री बाँसुरी को कन्हैया ने अपनाया है इसलिए कन्हैया हमारा जमाई हुआ।
एक गोपी बोली - अरी सखी देख,कन्हैया की बाँसुरी-वादन सुनकर हिरनिया पागल होकर दौड़ी आई है
और अपलक दृष्टि से कन्हैया को निहार रही है।
(गोपियों की दृष्टि कितनी तीक्ष्ण है कि अपने घर में से ही हिरणियों की स्थिर पलके भी देख सकती है !! )
ये हिरनिया अपने साथ हिरनको भी लाई है। वे कितनी भागयशाली है।
मेरे पति तो मुझे प्रभु सेवामें भी साथ नहीं देते।
ये हिरनियोंको धन्य है कि कृष्णकी पूजा नयनकमल चढ़ाकर करती है। उनके पास और कुछ नहीं है।
हिरनिया हमे बोध देती है कि आँख देने लायक कोई स्त्री नहीं है,कोई पुरुष नहीं है,
पर आँख देने लायक एक पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण है।