एक और गोपी बोली - अरी सखी,कन्हैया तो कदम के वृक्ष पर चढ़कर गायों को उनके नाम से पुकार रहा है। जिस-जिस गाय का नाम ले वह गाय हुँम्भ-हुँम्भ करती दौड़ती हुई आती है।
सभी गाये कन्हैया के मुख के दर्शन करती हुई उसे निहारती है।
कान ऊँचे कर कन्हैया की बांसुरी सुनने में वे मग्न है। धन्य है व्रज की गायों को।
गायों से घिरे हुए और कदम के पेड़ पर बैठकर बंसरी बजाते हुए कन्हैया के इस दृश्य की कल्पना करने जैसी है।
गोपियाँ भी गायों की तरह दौड़कर कन्हैया के पास जाना चाहती है,पर लोक-लज्जा का ख्याल आकर रुक जाती है। जब तक इन गोपियों को लोकलज्जा और देहाध्यास का ज्ञान है तब तक उन्हें रासलीला में प्रवेश नहीं मिलता। देहाध्यास मीट जाने पर उन्हें रासलीला में प्रवेश मिलेगा। देहाध्यास के नष्ट होने पर गोपीभाव प्राप्त होता है।
जब श्रीकृष्ण गायों को बुलाते है,उस समय नदियों को भ्रान्ति हो रही है,कि उन्ही को बुलाया जा रहा है।
वे बेचारी स्वयं तो जा नहीं सकती,
सो तरंगरूपी हाथों में कमल-पुष्प लेकर वेणुनाद की दिशा में फ़ेंककर भगवान का अभिवादन करती है।
जड़ और चेतन सभी बंसीनाद से मोहित है।
मुरली की मधुर ध्वनि से आज समस्त सृष्टि आनन्दमग्न हो गई है।
वेणुगीत नादब्रह्म की उपासना है। नाम में नाद का लय हुए बिना नादब्रह्म नहीं हो पाता।
गोपियों के घर में एक ही विषय है - वह है कन्हैया।
वृंदावन की बाते और कृष्ण की कथा करते-करते गोपियाँ घरमें बैठे-बैठे ही,अनायास समाधिस्थ हो गई है ।
उन्हें ध्यान धारणा आदि की जरुरत ही नहीं है।
योगीजन नाक पकड़कर प्राणायाम करके ब्रह्मदर्शन करने का प्रयत्न करते है,फिर भी वे सफल नहीं होते-
किन्तु वही ब्रह्म (कृष्ण या ईश्वर) दर्शन गोपियों को अनायास ही हो जाता है।
इसीलिए,गोपियाँ (भक्ति) योगियों (योग या ज्ञान) से भी श्रेष्ठ है। योगियों जैसा कष्ट उन्हें सहना नहीं पड़ता।
सभी इंद्रियोंको भक्तिरस का दान करती हुई गोपियाँ श्रीकृष्ण में तन्मय हो गई है।
गोपियों की समाधि दिव्य है। वह तो प्रेमकी सन्यासिनी है।
उन्होंने श्रीकृष्ण के लिए सांसारिक सुखो का त्याग किया है।
शुकदेवजी जैसे योगी भी इनकी कथा करते है। उन्हें लगता है कि वे संसार और वस्त्रों का त्याग करके
सन्यासी बने है,जबकि गोपियाँ तो संसार में रहकर और साड़ियाँ पहनकर भी सन्यासिनी बनी है।
शुकदेवजी इनकी लीला का वर्णन करते हुए पागल जैसे बने है। यह गोपियों की नहीं,ज्ञानी की,योगी की कथा है।