महात्माओं ने कहा है कि साल में ग्यारह महिने नौकरी करो और एक महिना नर्मदा या गंगाके किनारे जाकर जप-ध्यान -कीर्तन करो। इसे करने से धीरे-धीरे सांसारिक सुखोसे तुम्हे घृणा होने लगेगी।
ज्ञान और भक्ति बढ़ाने के लिए गोप-गोपियाँ घर छोड़कर गिरिराज गए है।
साधारण ग्रहस्थका घर विविध वासनाओं के सूक्ष्म परमाणु से भरा हुआ है। ऐसा वातावरण भक्ति में बाधक है। हमारा घर भोगभूमि होने के कारण राग-द्वेष,अहोभाव-तिरस्कार,वासना आदि हमे घेरे रहते है।
इसलिए महात्मा लोग कहते है कि एक महिना पवित्र तीर्थ स्थान में जाकर रहो। खूब भक्ति करो।
घर की चिंता मत करो। भगवान पर पूर्ण विश्वास रखो। परमात्मा तुम्हारी रक्षा करेंगे।
मनुष्य, मनुष्य पर विश्वास रखता है पर परमात्मा पर विश्वास नहीं रखता इसलिए दुःखी होता है।
परमात्मा की भक्ति करने के लिए कोई भी साधन करो। सारा साल भक्ति करो और अगर न हो सके तो-
एक महीना निवृत्ति लेकर कोई पवित्र स्थान पर जाकर एकांत में बैठकर भक्ति करो।
संसार की प्रवृत्ति में रहकर भक्ति करनी बहुत कठिन है।
घर को तीर्थ बनाओ। प्रवृत्ति छोड़ना तो मुश्किल है पर उसे कम करो। प्रभु ने जो दिया है उसमे संतोष मानो।
प्रवृत्ति में निवृत्ति का आनंद होना चाहिए। निवृत्तिका आनंद जीवको निवृत्तिके चिंतन की ओर ले जाता है।
निवृत्तिके समय भजनानंद पाना है तो लौकिक सुखोंका विषयानन्द छोड़ना ही होगा।
मनुष्य अगर निश्चय करे कि मेरे भक्ति का ही आनंद लेना है
और अगर उसे भक्ति का स्वाद (भक्तिका आनंद) लग जाए तो धीरे-धीरे विषयानन्द ज़हर जैसा लगता है।
कूड़े में इत्र की सुगंध कैसे मिलेगी? प्रवृत्ति में नीरव और सात्विक आनंद कहाँ?
संसार के विषयों में फंसे हुए विलासी लोगोके संग में रहने से मन हमेशा चंचल रहता है।
मानवसमाज में मानव होकर रहना आसान है। पर मानव समाज में विलासी लोगो के साथ रहकर
भक्ति करना कठिन है। विलासी के साथ रहकर भक्ति करने में बहुत विक्षेप आते है।
भजनानन्दी महात्माओं के सत्संग में रहने से भक्ति करने की प्रेरणा मिलती है।
प्रवृत्ति धर्म छोड़े बिना भक्ति का उदय नहीं होता।
परन्तु मनुष्य को जब तक शरीर में शक्ति हो तब तक प्रवृत्ति छोड़नी अच्छी नहीं लगती।
शरीर में रोग होने पर शक्ति कम हो और जबरदस्ती प्रवृत्ति छोड़नी पड़े तो वह निवृत्ति किस काम की?
शक्ति बिना का शरीर भक्ति नहीं कर सकता।
परमात्मा के लिए प्रवृत्ति का त्याग करो। एक बार भक्ति का रंग लग गया तो बेडा पार है।