Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-387



इस कथा का रहस्य है - वरुणदेव जलतत्व के अभिमानी देवता है। वरुणदेव जीभके मालिक है। प्रत्येककी
जीभ पर वरुणदेव जल तत्व के साथ विराजते है। उनके सेवक-दूत है षडरस। जब तक रसना पर काबू नहीं
हो पाएगा,तब रासलीला में प्रवेश नहीं मिलता। विषयी जीवको रासरस नहीं मिलता।

नन्द जीवात्मा है। इसलिए जीव जब भक्तिरूपी यमुना में स्नान करने जाए तब वरुण के सेवक-षडरस
उसे सताने उपस्थित हो जाते है। और जिसका मन (षडरसो) में फँसता है उसे भक्तिरस नहीं मिलता।

आनन्द किसी वस्तु  में नहीं,मन की एकाग्रता में है।षडरस पर विजय पाने के लिए भक्तिरस की साधना करो।
जिसे भक्ति करनी हो उसे मन और जीभ को वश में करना होगा।
महाप्रभुजी ने सुबोधिनी में कहा है,ठाकुरजी की सेवा में अनुराग करो और शरीर-भोग के प्रति विराग।
जीभ को नहीं जीवको समझाना है। मनुष्य का बहुत समय शरीर के लालन-पालन में बीत  जाता है।
काल निकट आ रहा है,उसका भी विचार करो।

अब चीरहरण का वर्णन आता है।
यह कथा लौकिक नहीं है। भाषा लौकिक है। उसके पीछे का सिध्धांत अलौकिक है।
यहाँ यह बात याद रखनी बहुत जरुरी है-कि-
श्रीकृष्ण जब चीरहरण लीला और रासलीला करते है उस समय उनकी उम्र आठ-दस की है।
(इसके बाद आएगा कि जब श्रीकृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा गए तब उनकी उम्र ग्यारह साल की थी)
लौकिक रूपसे देखे तो इस आठ साल की उम्र में “काम” क्या है उसका कोई ज्ञान नहीं होता।

एक बार व्रज की कुमारिकाए यमुना-किनारे स्नान कर रही थी  तो उनके वस्त्र उठाकर श्रीकृष्ण कदम के वृक्ष पर चढ़ गए और कुमारीकाओ से कहने लगे-तुमने जल में निर्वस्त्र  स्नान करके जलदेव का  अपराध किया है।
सो दोनों हाथ जोड़कर वंदन करके वस्त्र ले जाओ।
उन कुमारीकाओ ने ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने वस्त्र लौटा दिये।
इस चीरहरण लीला में भी एक रहस्य है। कुमारीकाओ के मन में ऐसी भावना थी कि वे नारी है।
ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है। उनका वह अहम-भाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने ऐसा व्यवहार किया।
इस लीला में अहंकार का पर्दा हटाकर  प्रभुको  सर्वस्व अर्पण करने का उद्देश्य बताया है।

भगवान् कहते है -तुम”अपनापन” स्वत्व भुलाकर मेरे पास आओ। द्वैत का आवरण दूर करोगे तो तो भगवान मिलेंगे।

शरीर को वस्त्र छिपाता है और आत्मा को वासना।
भगवान् तुम्हारे पास ही है किन्तु तुम देख नहीं पाते। वासना का पर्दा हटते ही भगवान दिखाई देंगे।
आत्मा और परमात्मा के बीच वासना का पर्दा है सो भगवान् का अनुभव नहीं हो पाता।
आत्मा अंदर है और ऊपर अज्ञान और वासना का पर्दा।
अज्ञान और वासनाके उस आवरणको चीरकर भगवानसे मिलना है। बुध्धिमें रहा काम कृष्ण मिलनमें बाधक है।

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