गोपियों को परमानन्द का दान करने के लिए यह रासलीला है।
श्रीधरस्वामी कहते है कि पंचाध्यायी निवृत्ति धर्म का परम फल है।
निवृत्ति धर्म का फल है- आत्मा-परमात्मा का मिलन। रासलीला में जीव और परमात्मा के मिलन का वर्णन है। परमात्मा को वही मिल सकता है जो परमात्मा के नाम में देहभान भूल जाता है।
देह-सम्बन्ध छूटे तभी ब्रह्म सम्बन्ध होता है।
रासलीला की कथा अति मधुर और दिव्य है। परन्तु उसका वर्णन करना और उसे समझना उतना ही कठिन है। शुकदेवजी सोचने लगे कि -समाज में रासलीला-श्रवण के अधिकारी कितने होंगे?
जो अधिकारी नहीं होगा वह इस लीला में काम ही देखेगा।
श्री राधाजी शुकदेवजी की गुरु है। उन्होंने शुकदेवजी का ब्रह्मसम्बन्ध कराया था।
श्री राधाजी की कृपा के बिना रासलीला का गूढ़ तत्व,रहस्य समझना आसान नहीं है।
शुकदेवजी ने राधाजी का स्मरण किया - “आप आज्ञा करो तो मै कथा करू”
राधाजी ने प्रकट होकर कहा -”बेटा,कथा करना पर विवेक से करना।”
राधाजी का नाम भागवत में नहीं है क्योकि-
राधाजी शुकदेवजी की गुरु है और गुरु का नाम नहीं लेने की परम्परा है।
शुकदेवजी अपने पूर्वजन्म में तोता थे और लिलानिकुंज में राधा का नाम रटते हुए उड़ते फिरते थे।
उनके राधा नाम के अखण्ड कीर्तन को सुनकर दया मूर्ति राधाजी वहाँ पधारी।
उन्होंने देखा तो एक तोता उनके नाम का जप कर रहा था। उन्होंने उसे अपने पास बुलाया-
और हथेली पर रखकर सहलाते हुए कहा -
”बेटा,कृष्ण-कृष्ण कहो,तू मेरा नाम लेता है पर तेरे तेरे सच्चे पिता श्रीकृष्ण है। "
इस प्रकार राधाजी ने मंत्र दीक्षा दी है।
श्री राधाजी आद्य संयोजिका और आहलादिका शक्ति है। ईश्वर से बिछड़े हुए जीव को वह कृष्ण से मिलाती है। राधाजी की कृपा होने पर जीव ईश्वर के दर्शन कर पाता है। उनकी कृपा ही जीवको प्रभु से मिलाती है।
शुकदेवजी पूर्वजन्म में तोता थे सो भागवत में “शुकदेव उवाच” लिखने के बदले “श्रीशुक उवाच” लिखा है।
श्री का अर्थ है राधा। “श्रीशुक’ में गुरु-शिष्य दोनों का नाम समाया हुआ है।
भागवत में अन्य किसी भी व्यक्ति के नाम के आगे "श्री"शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।
ब्रह्मा उवाच,सनत्कुमार उवाच,व्यास उवाच ऐसा ही लिखा गया है।
व्यासजीके नामके आगे भी "श्री"विशेषण नहीं है।