जीव ईश्वर के पास जाए तब उसकी परीक्षा करने के लिए ईश्वर उसे वापस संसार की तरफ भेजता है।
परमात्मा देखना चाहते है कि गोपियोंको उनके प्रत्ये परिपूर्ण प्रेम है या नहीं?
दूसरा अर्थ है कि जीव परमात्मा के स्वरुपमें जा मिलता है,वह कभी घर लौट नहीं सकता।
तीसरा अर्थ है कि भगवान् गोपियों को आदर्श स्त्री का धर्म बताते है।
पति और परिवार की सेवा करना स्त्री का धर्म है।
यदि स्त्री घर के हरेक व्यक्ति में परमात्मा की भावना रखकर ईश्वर का स्मरण करे तो-
उसे मंदिर में जाने की जरुरत नहीं है। योगियों को जो मुक्ति मिलती है वह,वो स्त्री को अनायास ही मिल जाती है।
हरेक व्यक्तिमें और पतिमें भी परमात्मा चैतन्य रूप में रहते है। पतिव्रता धर्म बहुत बड़ा है।
प्रभु गोपियों को पतिव्रता धर्म समझाते है और कहते है कि -
स्त्री में ऐसी शक्ति है कि वे भगवान् को बालक बना देती है। उसका उदाहरण महासती अनसूया है।
जो स्त्री घर में रहकर गृहिणी धर्म का पालन करती है,घर के सर्व व्यक्ति में ईश्वर की भावना करे,उनकी तन और मन से सेवा करे,परमात्मा का स्मरण करे तो उनके लिए मुक्ति सुलभ है। उन्हें अनायास ही मुक्ति मिलती है।
कृष्ण कहते है-मेरे संयोग की अपेक्षा मेरे वियोग में तुम्हे कई गुना अधिक सुख मिलेगा। वियोग में मेरा मेरा ध्यान स्मरण होता रहेगा और प्रेम पुष्ट होगा। संयोग में दोष-दर्शन शुरू हो जाता है,वियोग में गुणों का ही स्मरण,चिंतन होता रहता है। इसलिए अपने पति और संतानों को छोड़कर यहाँ आई हो वह उचित नहीं है।
ध्यान की आरम्भ अवस्था में साधक का चित्त चंचल होने के कारण उसे चारों ओर अंधेरे का ही दर्शन होता है,
ईश्वर रूपी प्रकाश का नहीं। यदि वह प्रयत्न करता रहे तो तो अंधकार चीरकर प्रकाश अवश्य आएगा।
ईश्वर की कृपा होगी और उनके दर्शन होते है।
श्रीकृष्ण निष्ठुर हुए है और गोपियों को "देह-धर्म" का उपदेश दिया है।
पर अब गोपियों ने "आत्मधर्म"से भगवान् को जवाब दिया है -
देह का स्वामी पति है। इस शरीर का कोई पति होगा,पिता होगा,किन्तु आत्मा का पिता-पति कोई नहीं है।
आत्मा का धर्म है प्रभु से मिलन। स्त्री का देह धर्म है पति और परिवार की सेवा करनी,
पर जो "स्त्री नहीं है",जो "शुध्ध चेतन आत्मा" है वह किसकी सेवा करे?
शरीर और आत्मा के धर्म अलग है। आपने देह धर्म बताया पर आत्मा धर्म का क्या?
जहाँ स्त्रीत्व नहीं है,पुरुषत्व नहीं है ऐसा शुध्ध चेतन आत्मा,परमात्मा को छोड़कर कहाँ जाए?
देहधर्म और आत्मधर्म का जहाँ विरोध हुआ वहाँ पर महात्माओं ने भी देहधर्म छोड़ दिया है।
शास्त्रों में आज्ञा है- "मातृदेवो भव - पितृदेवो भव"
पर माता -पिता तो शरीर के माता-पिता है। आत्मा के पिता तो परमात्मा है।
परमात्मा के मार्ग में जाते हुए अगर माता -पिता रोके तो उनका भी त्याग करो।
प्रहलाद ने प्रभु का नाम लेनेमें विघ्न कर्ता-पिताकी आज्ञाका उल्लघन किया है,पर उन्हें उसका पाप नहीं लगा है।
राम मिलन में कैकेयी ने विघ्न किया है इसलिए भरतजी ने अपनी माँ का त्याग किया है।