Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-397



आज गोपियों ने प्रभुको आत्मधर्म का उपदेश दिया है और  कहा है -
आपने हमे स्त्रीधर्म समझाया,पर हम आत्मधर्म में मानते है। हम आशासे आये है इसलिए -
अब हमे वापस जाने का न कहो। आप निष्ठुर मत बनो।
आपने गीता में कहा है -जो भाव से जीव  आपकी सेवा करता है,उस भाव से आप उसे मिलते हो।
आप तो पतितपावन और दयासागर है। ऐसी श्रध्धावश हम आपके चरणों में आई है। अब आप कठोर मत बनो। हमने  संसार के सभी विषयों का त्याग करके आपके चरणों की शरण लेने का अटल निश्चय किया है।  

सभी विषयों का मन से त्याग करो। मनुष्य बाहर से त्याग  करता है पर मन से त्याग नहीं करता।
शरीर से त्याग वह दंभ है पर मन से त्याग वह सच्चा त्याग है। तन कहीं भी हो पर मन ईश्वर से दूर मत करो।
गोपियों का त्याग श्रेष्ठ है,उनके मन में श्रीकृष्ण के सिवाय और कुछ नहीं रहा है।

वायु-पुराणमें एक कथा है। श्रुत और अनुश्रुत नामक दो ब्राह्मण मित्र थे।
वे दोनों प्रयागराज में वेणीमाधव के मन्दिर की ओर यात्रा करने निकले है।
जन्माष्टमी के दिन वेणीमाधव के दर्शन करने का संकल्प किया है।
चलते-चलते रात हो गई और वे थक गए है। इतने में एक घर देखा। जोरों की बरसात हो रही थी और अँधेरा भी
हो गया था। दोनों ने बरसात से बचने के लिए उसके घर आसरा लिया। पर वह घर वेश्या का था।
इसलिए,थोड़ी देर बाद अनुश्रुत ने कहा -चलो हम समयसर प्रयागराज जाने के लिए निकले।

श्रुत ने कहा - बारिस बहुत है और अँधेरा भी है। रास्ता भी नहीं दिखाई देता। तुम्हारे जाना हो तो जाओ।
मै तो यहाँ बैठकर ठाकुरजी का स्मरण करूँगा।
अनुश्रुत ने सोचा कि इसका मन बिगड़ा है। वह भले यहाँ रहे,मै तो आगे जाऊँगा।
उसने प्रयाग पहुँच कर मंदिर में मुकाम किया।

श्रुत जिसने वेश्याके घर में मुकाम किया था अब पछताने लगा। अपने आप को कोसने लगा।
धिक्कार है मुझे। मै कैसा शुद्र हतभाग्य हूँ कि जन्माष्टमी के दिन मन्दिर में ठहरने के बजाय यहाँ रुका हूँ।
मेरा मित्र कितना भागयशाली है कि इस समय प्रभु के मुखारविंद के दर्शन कर रहा होगा।
मन्दिर में उत्सव हो रहा होगा। कितना भव्य और पवित्र होगा वह दृश्य!
इस प्रकार श्रुत वैश्यगृह में था पर मन तो वेणीमाधव के पास था।
बड़ी तन्मयतासे वह मन-ही-मन जन्माष्टमी का पवित्र प्रसंग निहार रहा था।

उधर मन्दिर में बैठा हुआ अनुश्रुत पछता रहा था। उसका ध्यान माधवराय में नहीं लगता।
उसका मन ईश्वर में नहीं लगता। तन मंदिर में था पर मन नहीं था। वह सोच रहा था कि
इतने कष्ट झेलकर यहाँ आया और वहाँ मेरा मित्र उस सुन्दर वैश्या के साथ क्रीड़ा कर रहा होगा।
कितना भागयशाली है मेरा मित्र।
उसका मन उत्सव में नहीं था। उसका शरीर तो माधव के मन्दिर में था पर मन वैश्या में था।

श्रुत वैश्या के घर में प्रभु का चिंतन करते-करते विष्णु लोक में गया और अ
नुश्रुत मन्दिर में वैश्या का चिन्तन करते हुए नरक में पहुँचा।
सच्चा भक्त वह है जिसका मन वृंदावन में है। केवल देह शुध्धि नहीं पर मन शुध्धि भी आवश्यक है।

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