पर जिसके मन में विकार-वासना न हो वे प्रभु के पास आती है। हमारे मनमें कोई विकार वासना नहीं है।
भगवान पूछते है-क्या प्रमाण है तुम्हारी निर्विकारिता का?
गोपियाँ -आप ही प्रमाण है क्योंकि हमारे ह्रदय में आप ही विराज रहे है।
हमारे मन अगर कोई विकार हो तो आप उससे अंजान नहीं हो।
आप तो सर्वज्ञ हो,सर्वेश्वर हो। कृपा करो,अब तो एक ही इच्छा है आप को मिलना और आप में समा जाना।
गोपियाँ कहती है -आपने जो पतिसेवा की आज्ञा दी,वह शिरोधार्य है।
हमारे शरीरके पति घर में है,किन्तु आत्मा के पति आप है।
आप पति में ईश्वर की भावना रखकर उनकी सेवा करने को कहते है किन्तु -
पति में ईश्वर की भावना तो उस स्त्री के लिए आवश्यक है जो आपको देख नहीं पाती हो।
हमने आपके प्रत्यक्ष दर्शन किए है सो अन्य किसी व्यक्ति में ईश्वर का आरोप करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
जिव मात्र के सच्चे पति तो आप ईश्वर हो। इसलिए हम सबने,ऐसा समझकर आपके चरणका आश्रय किया है।
भावना,कल्पना,आरोपण तो वियोगावस्था में करना पड़ता है,सयोंगावस्था में नहीं।
परमात्मा के या किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष दर्शन का अवसर न मिलता हो -
तभी उससे सम्बंधित मूर्ति,छवि या अन्य किसी वस्तुमें उसका दर्शन हम करते है।
गोपियाँ अब श्रीकृष्ण से पूछती है -
आपने पतिव्रता स्त्री का धर्म बताया,अब धर्म के पालन का फल क्या है वह हमे बताओ?
कृष्ण - “स्वधर्म का पालन करने से पापों का नाश होता है,और चित्तशुध्धि(मन शुध्दि) होती है।
जिसका मन शुध्ध है उसे परमात्मा मिलते है। “स्वधर्म” का फल है “प्रभु मिलन”
गोपियाँ कहती है- जो स्व-धर्म का फल -प्रभु-मिलन या परमात्माकी प्राप्ति है वह -
आप (प्रभु) तो हमको मिल गए हो । अब हम दूसरे धर्म के चक्कर में क्यों फँसे?
धर्म तो “साधन” है,”साध्य” (परमात्मा) को प्राप्त करने के लिए.
पर-अगर “साध्य”(परमात्मा) ही हाथ में आ जाये तो “साधन” (धर्म) को कौन पकड़ने जाए?
नाथ,ऐसा मत मान ले कि आप ही कथा कर सकते है। अगले जन्म में हमने सब अनुभव किया है। कथा-आख्यान,कीर्तन-भजन सुनते-सुनते हम थक गयी फिर भी आपकी झांकी तक नहीं मिली।
तो हमने ऋषियों का चोला उतार गोपियों का रूप धारण किया है।
अब हमारा मन अति शुध्ध हुआ है जो आप हमे मिले है।
आप ही हमारे सच्चे पति है,आपके दर्शन कर हमे किसी और को देखने की इच्छा नहीं होती।
अगर आप हमारा त्याग करोगे तो हमारी क्या दशा होगी? आप हमारा त्याग मत करो।