अगर मै तुम्हारा सच्चा पति हूँ तो मेरा कहना मानना पड़ेगा। मालिक की आज्ञा का पालन करना सेवक का धर्म है। सेवक को अधिक बोलने का अधिकार नहीं है।
मेरा आज्ञा का पालन करो। जाओ,घर जाकर अपने परिवार और पति की सेवा करो।
यदि लौकिक पति स्वार्थी हो,फिर भी मेरी आज्ञा है कि उसी की सेवा करो।
गोपियाँ भी आज हार स्वीकारने नहीं आई है।
वे मक्कम है और वे जो जवाब देती है वह रसमय है।
भगवान की कोई भी जगह हार नहीं हुई है,पर गोपियों के प्रेम के आगे उन्हें हार स्वीकारनी पड़ी है।
अब गोपियाँ भगवान को हराने के लिए क्या कहती है?
“नाथ,हम हजारों जन्मों तक यह सब कुछ झेलकर थक गई है।
और अब जो आप हमे मिले हो तो हम वापस क्यों लौटे?
फिर भी अगर आपकी आज्ञा हो सो जाना पड़ेगा,
किन्तु अपने लौकिक पति की सेवा करने के लिए मन तो चाहिए ने?”मन”के बिना सेवा कैसे करे?
हमारा मन तो आपने चुरा लिया है। हमारा मन तो आप में मिल गया है।
जो आप “मन” लौटा दे, तो हम वापस जाने के लिए तैयार है।
जो अपना मन ईश्वर को दे देता है,वह ईश्वर से तदाकार हो जाता है।
ईश्वर स्वयं भी उस मन को वापस नहीं कर सकते। दूध में मिली हुई मिसरी क्या कभी अलग हो सकती है?
उसी तरह मन ईश्वर का चिंतन करता है और उस ईश्वरमे मिल जाता है
फिर उस मन को ईश्वर से अलग नहीं किया जा सकता।
श्रीकृष्ण कहते है -तुम्हारा मन मुझसे कब और कैसे मिल गया,वह मै नहीं जानता। सो कैसे लौटाऊ?
मुझे वापस लौटाना नहीं आता।
गोपियाँ -तो फिर मन के बिना हम अपने घर कैसे लौटे? आप मन दे नहीं सकते है सो हम घर जा नहीं सकते।
आज से आप हमारा स्वीकार करो।
हमे और कोई आशा नहीं है। हमारे में कोई विकार नहीं है। हम शुध्ध भाव से आये है।
हमारे पाँव आपके चरणकमल को छोड़कर एक कदम भी हटने को तैयार नहीं है तो हम व्रज कैसे लौटे?
और यदि हम लौटे तो भी मन के बिना वहाँ हम क्या करे?
प्रभु- मै योगशक्तिसे तुम सबको उठाकर तुम्हारे घर पहुँचा दू तो?
गोपियाँ - हमारे शरीर को आप घर पहुँचा देंगे किन्तु मन तो साथ नहीं जायेगा तो हम वहाँ क्या करेंगे?
हमारा मन तो आपमें मिल गया है। हम सब आपके लिए जी रहे है। आपको छोड़कर जाने की हमे इच्छा नहीं है। प्रभु - मै तुम्हारा प्रेम जानता हूँ। फिर भी आज तो अपने-अपने घर लौट जाओ।
गोपियाँ -नाथ, अब हम नहीं जा सकती,चाहे हमारे प्राण क्यों न चले जाए?