गोपियाँ - नाथ,बस केवल अपने अधरामृत का दान कीजिये कि जिससे आपका कभी वियोग न हो सके।
हमें नित्य संयोग का दान चाहिए।
अधरामृत का अर्थ है प्रेमामृत,ज्ञानामृत। जिस अमृत का कभी नाश न हो।
प्रभु - नित्य संयोगरूप अधरामृत देना या न देना मेरी इच्छा पर निर्भर है। ऐसा दान मै न दू तो?
एक गोपी को यह ठीक नहीं लगा। अतिप्रेम आवेश में आकर कहने लगी -अधिक अकड़ मत दिखाइये।
अंतिम उपाय हमारे हाथ में है। हम आपको अपने लिए नहीं किन्तु आपकी कीर्ति कलंकित न हो जाए,
इसलिए मना रहे है। आपकी कीर्ति की वृध्धि के लिए हम आपसे प्रार्थना करते है। यदि हमे नित्य संयोगरूप अधरामृत देंगे तो आपकी ही प्रतिष्ठा बढ़ेगी। अन्यथा हम विरहाग्नि से शरीरको भस्मीभूत कर देंगे।
हमने सुना है कि मृत्यु के अन्तिम पलों में जिसका चिन्तन किया जाये वह उसे मिलता है।
शास्त्रानुसार,अन्तकाल में जिसका स्मरण करते हुए देह-त्याग किया जाए,उसी में जीव लीन हो जाता है।
हमारे मन में अन्य कोई भी नहीं है। हम अपनी अंतिम सांस तक आपका ही स्मरण,ध्यान,चिंतन करेंगे और
आपका नाम जपते हुए प्राण त्याग करेंगे।
इसलिए हम जीते-जी चाहे आपको न पा सके,पर मरने के बाद तो पायेंगे। फिर आप कहाँ जायेंगे?
लोग जानेंगे तो कहेंगे कि -श्रीकृष्ण निष्ठुर थे। बांसुरी बजाकर गोपियों को बुलाई,
और जब गोपियाँ सब छोड़ कर आई तो प्रभु ने उन पर कृपा नहीं की।
अंत में गोपियों ने श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए प्राण त्याग दिये। गोपियों का प्रेम दिव्य था पर श्रीकृष्ण निष्ठुर थे।
अब प्रभु के पास बोलने का कुछ न रहा। गोपियों के प्रेम भरे वचन से प्रभु की हार हुई है।
महाप्रभुजी ने गोपियों के वचन की जयजयकार की है। अति प्रेम की यह जीत है।
यह जीव और ईश्वर का वार्तालाप है। ईश्वर परिपूर्ण वैराग्य,प्रेम-भक्ति और ज्ञान मांगते है। और फिर अपनाते है।
जीव की कसौटी लेने के बाद ही ईश्वर उसे अपनाते है।
गोपियोंकी हर प्रकारसे परीक्षा करनेके बाद ही श्रीकृष्णने उनको अधरामृत दिव्य रस-अद्वैत रस का दान दिया।
ऐसे-अंत में,अति-प्रेम के आगे-परमात्मा की हार-और-गोपियों की जीत हुई है। अब रासलीला का प्रारंभ होता है।
प्रभु ने एक साथ अनेक स्वरुप धारण किये।
जितनी गोपियाँ थी,उतने ही स्वरुप धारण कर प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक स्वरुप रखकर रासका आरंभ किया। हजारों जन्मों से विरही जीव आज प्रभु के सम्मुख उपस्थित हो सका है। अंश(जीव) अंशी(ईश्वर)से मिला है।
दोनों एकरूप हुए है। गोपी और कृष्ण एक हुए। श्रीकृष्ण ने गोपियों को परमानन्द का दान किया है।
गोपियाँ कृतार्थ हुई।