क्योंकि - उसके बाद शरीर में काम-विकार का प्रवेश होता है।
श्रीकृष्ण ने रास लीला की उस समय उनकी उम्र ग्यारह वर्ष से कम थी।
पुरुषत्व -अभिमान और अहम का सूचक है। ईश्वर के घर में पुरुष अर्थात अभिमान का कोई स्थान नहीं है।
जो जीव गोपीभाव- नम्रता से जाता है उसे ईश्वर के घर में प्रवेश मिलता है।
इसीलिए-एक मात्र नारदजी को को दुःख हुआ कि वे पुरुष-रूप में आने के बदले स्त्रीरूप से आये होते तो
उन्हें रास लीला का दान मिलता। नारदजी क्या जाने - “पुरुष तो एक पुरुषोत्तम,और सब व्रजनारी है”
इतने में राधाजी की नज़र नारदजी पर पड़ी। वृन्दावन की अधीश्वरी देवी राधाजी है।
वे नहीं चाहती कि वृंदावन के किसी भी अतिथि को किसी प्रकार का कष्ट या दुःख हो।
नारदजी ने राधाजी से कहा -गोपियों जैसा आंनद मुझे मिले ऐसी इच्छा है।
राधाजी- आप राधाकुण्ड में स्नान करोगे तो रास लीला में प्रवेश मिलेगा।
राधाकुंड में स्नान करने के बाद नारदजी नारदी (स्त्री) बन गए।
उन्होंने सोचा कि- यदि साड़ी पहनने से परमात्मा मिलते हो तो साड़ी पहनने में क्या आपत्ति है ?
आज तक पुरुषत्व का अभिमान ने मुझे प्रभु से दूर रखा है।
आज तक मै इसी अभिमान में डूबा रहा कि मै पुरुष हूँ,बड़ा कथाकार हूँ। और इससे में दुःखी हुआ।
नारदजी अपने “स्व-रूप” में स्थिर होकर शुध्ध भाव से रासलीला में पधारे है।
गोपियों ने अपना स्त्रीत्व छोड़ दिया और नारदजी ने अपना पुरुषत्व।
जब तक “मै स्त्री हूँ-या-मै पुरुष हूँ" ऐसा ख्याल मन में है तब तक परमात्मा के पास जीव नहीं जा सकता।
दूसरी दृष्टि-से- देखे तो पुरुष “अहंभाव” का प्रतिक है और स्त्री “नम्रता” का प्रतिक है।
नारदजी को अभिमान था कि मै बड़ा कीर्तनकार हूँ,बड़ा ज्ञानी हूँ।
जैसे ही उनका अभिमान पिघला और अहम का त्याग किया,नम्र बने-तो उन्हें रास लीला में प्रवेश मिला।
जो दीन (नम्र) बनके ईश्वर के पास जाता है उसे ईश्वर अपनाते है।
रासलीला प्रेम लीला है,मोह लीला नहीं।
गोपियों को श्रीकृष्ण से प्रेम था,मोह नहीं। शरीर का चिंतन करने से मोह होता है।
आत्मा का चिंतन प्रेम उत्पन्न करता है और शरीर का चिंतन मोह।
प्रेम अमर है। प्रेम,कभी नहीं मरता।
मोह में भुगतने की इच्छा होती है। प्रेम में प्रियतम को सुखी करने की इच्छा होती है।
मोह में द्वैत है,जबकि प्रेम में अद्वैत है। जहाँ त्याग है वहाँ प्रेम प्रगट होता है,प्रेम में अत्यन्त धीरज होती है।
रुक्मणी ने श्रीकृष्ण को पत्र में लिखा था,चाहे कितने भी जन्म मुझे लेने पड़े,किन्तु वरूँगी तो आपको ही।