मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है रासलीला। ईश्वर को प्राप्त किये बिना जीव को शान्ति मिल नहीं पाएगी।
जैसे ही वह ईश्वर के साथ एक हुआ उसे मुक्ति मिलती है।
यह जीव लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कोई साधन नहीं करता। इसलिए उसे परमात्मा का अनुभव नहीं होता। महात्माओं ने कहा है -सत्कर्म करने के लिए कोई विशेष मुहूर्त की आवश्यकता नहीं है।
इसी क्षणसे सत्कर्मका आरम्भ करो। आज तक पैसे के पीछे दौड़े अब ईश्वर के पीछे दौड़ो।
आजकल अशान्ति का कारण यह है कि जीव ने ईश्वर को भूला,दिया है।
मनुष्य बड़ा राजा बने या देव, विद्वान या मूर्ख फिर भी उसे शान्ति नहीं है।
शान्ति और आनन्द तब मिलता है जब जीव ईश्वर से मिलता है।
भगवान तो स्वयं आनंदस्वरूप है। उन्हें आनंद की जरूरत नहीं है।
गोपियों को परमानन्द का दान देने के लिए उन्होंने रासलीला की थी।
आनंद तीन प्रकार के है -विषयानन्द,ब्रह्मानंद और परमानन्द। इन तीनों में परमानन्द श्रेष्ठ है।
कई मनुष्य साधन करते है। और साधन करते-करते थोड़ी सिध्धि भी मिलती है।
जैसे कि-वह जो बोले वह सच होने लगता है।
ऐसी-सिध्धि के साथ प्रसिध्दि मिलती है जिससे लोग उसके पीछे पड़ते है।
ऐसा होने पर अभिमान आता है और अभिमान पतन लाता है।
कितनी बार साधुओं को बिगाडने वाले उनके चेले होते है।
चेले की जमात “बापजी-बापजी” करती है जिससे साधुओं को होता है कि -"मै कुछ हूँ"।
जब यह “मैं “ (अहम्) आया-तब समझो कि साधना में उपेक्षा आई।
साधु सोचने लगता है-कि-प्रभु की सेवा हो तो ठीक और न हो तो भी ठीक है।
मेरे चेले अब प्रभुकी सेवा करते है,में तो सिध्ध हूँ सो मन से सेवा कर लूँगा।
तुकाराम ने कहा है - मेरे प्रभु ने मुझे अपना लिया है,प्रेम बढ़ता जा रहा है। मै और प्रभु एक हुए है-
किन्तु भजन करने की आदत पड़ गई है सो छूटती नहीं है।
महात्माओं ने कहा है -ईश्वर के दर्शन हो जाने के बाद भी जप-सेवा-ध्यान आदि साधनों का त्याग न करना।
अन्यथा माया घेर लेगी।