Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-404



भक्ति में -सतत-दैन्य-भाव,अति आवश्यक है।
कुछ लोग साध्य (परमात्मा) की प्राप्ति हो जाने पर साधन (भक्ति-इत्यादि) की उपेक्षा करते है।
यह ठीक नहीं है। साधन (भक्ति-इत्यादि)में शिथिलता आएगी तो मन गड़बड़ करेगा।

चमत्कार होने पर नमस्कार करने वाले तो बहुत है। पर बिना चमत्कार के नमस्कार करे उसमे ही सौजन्यता है।
वही भक्ति है। "भक्ति" में श्रध्धा रखने से "अनुभव" होता है
और फिर "अनुभव का ज्ञान" मिलने  मिलने से भक्ति दृढ़ होती है।

परमात्मा का मिलन होने के बाद कई बार पूर्व प्रारब्धके कारण अभिमान आता है।
रासलीलामें भी पल भर के लिए गोपियों को अभिमान आया था।
उन्होंने तो कहा है कि -सभी विषयों का त्याग करके हम आपके पास आई है।
तो फिर गोपियों में अभिमान कहाँ से आया?
अभिमान बहार नहीं था पर अंदर ही सूक्ष्म रूप से छिपा  हुआ था।
मनुष्य का शत्रु बाहर नहीं है। अंदर ही बैठा हुआ है।

गोपियों को अभिमान आया कि श्रीकृष्ण ने हमे मान दिया और अपनाया।
गोपियाँ मानने लगी कि श्रीकृष्ण हमारे प्रति आसक्त थे पर आसक्त न होने का दिखावा कर रहे थे।
गोपियों में अभिमानवश ऐसा लौकिक भाव जागा कि तुरंत ही श्रीकृष्ण अदृश्य हो गए।

भगवान् तो सर्वव्यापक है,सर्वत्र है -वे अंतर्धान नहीं हो सकते।
पर यहाँ अंतर्धान का अर्थ है -अभिमानरूपी पड़दा जब आँख पर आया तब भगवान दिखते नहीं है।

गोपियों की नजर श्रीकृष्ण से हटकर जगत में नहीं गई है पर अपने खुद के स्वरुप में गई है।
ज्ञानमार्ग में आत्मस्वरूप में दृष्टि रखनी ठीक है पर भक्तिमार्ग में वह बाधक है।
गोपियों का श्रीकृष्ण पर “मधुर भाव” है
और “मधुर भाव”में श्रीकृष्ण के सिवा दृष्टि कहीं  और जाये तो वह अपराध  है।

व्रजवासी ऐसा मानते है - कि भगवान् ने उस समय पीताम्बर से गोपियों की तरह लाज रखकर मुँह छिपाया था। इसलिए गोपियाँ ऐसा मानती है कि वे हममें से एक है।

परमात्मा व्यापक है पर गोपियाँ श्रीकृष्ण को बाहर ढूँढती है।
वृक्षों और डालियों को पूछती है,पर अपने ह्रदय में नहीं ढूँढती।
भगवान तो ह्रदय में है पर अज्ञान के पडदे के कारण हम देख नहीं सकते।

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