एक बार दश पंडित अभ्यास करके वापस आ रहे थे। रास्ते में नदी पार कर दूसरी ओर आये। “अपने में से कोई रह तो नहीं गया है”? ऐसा सोचकर सभी ने बारी-बारी गिनती शुरू की। किसीने भी अपने आपको नहीं गिना इसलिए गिनती दश के बदले नौ हुई।
अपने में से एक पानी में डूब गया ऐसा सोचकर वे रोने लगे। वहाँ से एक महात्मा जा रहे थे। उन्होंने पंडितो को रोने का कारण पूछा। पंडितो ने कारण बताया।
महात्मा ने दश-की गिनती की और कहा कि- दसवें तुम खुद हो-खुदको गिनती में नहीं लाते-इसीलिए नौ हो।
अज्ञान के कारण जीव अपने आप को भूला जा रहा था। ज्ञानीने सही स्थिति बताई।अज्ञान के कारण जो नहीं है,वह दिखाई देता है और जो है वह नहीं दिखता।
भगवान को बाहर कही नहीं,पर अपने ह्रदय के अंदर खोजो।
दक्षिण में पुंडलिक नामक महान भक्त थे। उनको उनकी महानता माता-पिता की सेवा करने से मिली।
वे माता-पिता की सेवा -उन्हीको प्रभु मानकर करते। माता-पिता कुष्ठ रोगसे पीड़ित थे और उसके कारण चिड़चिड़े स्वभाव के हो गए थे। पुत्र खूब लगनसे सेवा करता था फिर भी भी वे -कभी कभी उसका अपमान भी करते थे।
पुंडलिककी सेवा इतनी तीव्र हो गई कि द्वारकानाथ को उसे दर्शन देने की इच्छा हुई।
द्वारकानाथ द्वारका से पुंडलिक की झोंपड़ी के द्वार के पास आये।
भगवान् कहते है कि- तेरी सेवा से मै प्रसन्न हुआ हूँ इसलिए तुझे दर्शन देने आया हूँ।
पुंडलिक ने भगवान् से कहा - इस समय मै माता-पिता की सेवा में व्यस्त हूँ,झोंपड़ी में जगह नहीं है,
आप बाहर प्रतीक्षा कीजिये। मै सेवा से निवृत होकर आपके दर्शनके लिए बाहर आऊँगा।
पुंडलिक ने सोचा कि मुझे माता-पिता की सेवा करने से ईश्वर मिले है। इसलिए माता-पिता श्रेष्ठ है।
जब साधन (माता-पिता) हाथ में है तो साध्य (प्रभु) कहाँ जायेंगे? भक्त भगवान से भी प्रतीक्षा करा सकता है।
भगवान को विश्राम करने के लिए पुंडलिक ने एक ईंट बहार फेंकी और उस पर खड़े रहने को कहा। पुंडलिक को आने में देर लगी। भगवान प्रतीक्षा करते हुए थक गए तो कमर पर हाथ का सहारा लेकर खड़े रहे।
भगवान की इस मुद्राका दूसरा अर्थ यह है कि उनके चरणों में आश्रय लेने वाले के लिए-
संसार सागर कटि तक ही गहरा है। अन्यथा आज तक इसमें न जाने कितने जीव डूब गए है।
पुंडलिक माता-पिता की सेवा करने के बाद बाहर आया है।
ऐसे-उसे प्रत्यक्ष परमात्मा (साध्य) मिले,फिर भी उसने साधन (मात-पिता की सेवा) नहीं छोड़ा।