Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-406



रास में भी गोपियों के मन में अभिमान आया सो श्रीकृष्ण अद्रश्य हो गए।
अभिमान जागते ही साधन (भक्ति) उपेक्षित हो जाता है। गोपियों को हुआ कि हमारे और राधाजी में क्या फर्क है। रास में जैसे राधाजी को आनंद आया वैसा हमे भी आया। राधाजी और हम एक है।
प्रभुजी को यह -अभिमान ठीक नहीं लगा। इसलिए -वह अन्तर्धान हुए है ।

क्या भगवान् अन्तर्धान हुए थे ? नहीं, वे तो वही थे,किन्तु गोपियाँ उन्हें देख नहीं पाती थी !!
भगवान् तो उनके ह्रदय में समा गए थे,किन्तु गोपियाँ उन्हें बाहर ढूँढ रही थी सो-वह  मिल नहीं पाते थे ।
वैसे भी,ईश्वर को जाने और आने की क्रिया का बंधन नहीं है क्योंकि वे तो सर्वव्यापी है।
जो स्वरुप को अंदर छुपाय रखे वह है अंतर्हित(अंदर से हित करना उसे अंतर्हित कहते है )
गोपियो को अंदर का आनंद देने,वियोग का आनंद देने  प्रभु अंतर्हित हुए है।
वियोग में थोड़ा दुःख होता है पर फिर -उसके बाद संयोग में आनंद होता है।

श्रीकृष्ण ने  गोपियो के ह्रदय में प्रवेश किया। जो परमात्मा बाहर खेल रहे थे वे अब गोपियों के ह्रदय में है।
पर गोपियाँ उन्हें अपने ह्रदय में ढूंढने के बजाय बाहर ढूँढती है।
गोपियोँकी -वृत्ति कृष्णाकार होने के कारण -उनके अन्तरंग में संयोग है-और बहिरंग में वियोग है।

गोपियाँ वन के पत्ते-पत्ते और फूलो से -भी-कृष्ण का पता पूछ रही है।
कही मेरे श्यामसुन्दर को तो नहीं देखा? कोई तो बताओ।

वियोग के कारण गोपियाँ ऐसी बावली हो गई है कि उन्हें यह भी याद नहीं है कि फूल-पत्ते तो जड़ है,बोल नहीं पाते। व्याकुल गोपियाँ श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिंतन कर रही है।
श्रीकृष्ण का कीर्तन करते-करते फूल-पत्ते में भी श्रीकृष्ण के दर्शन करती है।
गोपियाँ  श्रीकृष्ण का चिंतन करती हुई इतनी तन्मय हुई है और कह रही है कि ”मै ही श्रीकृष्ण हूँ”

”लाली देखन मै गई,मै भी हो गई लाल”
यह ध्यान और भक्ति की पराकाष्ठा और  फल है। ध्यान  करते-करते संसार का विस्मरण होता है।
ध्यान में तन्मयता हो जाने पर “मेरापन” मिट जाता है। ध्याता,ध्यान और ध्येय एक बन जाते है। यही मुक्ति है।

पहले गोपियाँ अपने आपको श्रीकृष्ण की दासी कहती थी तब  “दासोहम” था,
अब गोपियाँ कहती है “मै ही कृष्ण हूँ” तो “कृष्णोहम” हो गया।
जो सर्व में श्रीकृष्ण के दर्शन करता है उसे अपने अंदर भी कृष्ण दिखते है।

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