कन्हैया नन्द-यशोदा का पुत्र नहीं है। मै जानती हूँ तू कौन है।
कन्हैया- तुम जानती हो मै कौन हूँ? मै तो यशोदा का लाल हूँ।
गोपियाँ -आप यशोदानंदन नहीं है। यशोदाजी तो बहुत भोली है।
अगर आप हमारी जाति के होते तो हमे छोड़कर नहीं जाते।
श्रीकृष्ण कहते है - तो मै सर्वका - अन्तर्यामी नारायण हूँ।
गोपियाँ - हम आपको भली-भाँति जानती है और इसलिए ही प्रेम करते है। आप सभी के ह्रदय में
अन्तर्यामी रूप से विराजमान नारायण है। समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में बसे हुए साक्षीभूत है।
अन्त में भगवान बोले- चलो,मै तुम्हे दर्शन देता हूँ जिससे तुम्हारा काम तो पूरा होगा?
गोपियाँ -हमें दूसरा भी एक काम (इच्छा) है।
श्रीकृष्ण-तुम्हारी दूसरी और क्या इच्छा है? मुझे बताओ,मै तुम्हारी भावना पूर्ण करूँगा।
गोपियाँ - हे कान्त,आपके वरद हस्त ऐसे शक्तिमान है कि हमारे अभिमान को दूर कर सकते है।
आप अपना मंगलमय हस्त हम सबके मस्तक पर रखिए।
इस पांचवे श्लोक का तात्पर्य शरण भक्ति है। इसके पहले के श्लोक में प्रभु के महात्मय का वर्णन है।
छठ्ठे श्लोक में कहा है - हमे दर्शन दो। सातवे श्लोक में कहा है -तुम्हारे चरण हमारे ह्रदय में स्थिर करो।
आँठवे श्लोक में कहा है -हमे अधरामृत का दान दो।
भगवान् महान,समर्थ,अप्रितम प्रभावी है.ऐसी प्रतीति होने पर ह्रदय उनकी याचना करे वह स्वभाविक है।
जीव शरण भाव से उनको अधिक पहचान सकता है.प्रभु-प्रेम के मार्ग पर गोपीजन आगे बढ़ती हुई -
शरण याचना करती है कि जिससे सभी प्रकार के भयों से मुक्ति मिल पाए।
श्रीकृष्ण- इतनी सारी सखियों में से किस-किस के मस्तक पर हाथ रखू? समय भी बहुत लगेगा।
सो मै पहले मेरे दूसरे भक्तों के काम निपटा लू,फिर तुम सबको स्पर्श लाभ दूँगा।
गोपी- कन्हैया,दूसरे भक्तो का काम बाद में करना। पहले हमारे पर कृपा करो।
तुम पर सबसे पहला अधिकार हमारा ही है। आप व्रजवासियों के दुःखो के नाश कर्ता है।
अन्य भक्त तो व्रजवासी नहीं है। कन्हैया,हम एक ही गाँव के वासी है। सो तुझ पर पहला अधिकार हमारा है।
तेरा अवतार ही तो हम व्रजवासियों के उद्धार के लिए हुआ है।