इसके बाद मथुरा की लीला रजस लीला है। उसमे युद्ध और विवाह की बातें है।
द्वारका-मथुरा में श्रीकृष्ण शंख फूंकते है,बाँसुरी नहीं।
वेदों के मन्त्र भोगपरक होते हुए भी उनका तात्पर्य त्यागपरक है,प्रभु के साथ तादाम्य पानेके लिए है।
वेदांत "अनुभव का विषय" है ,केवल वाणीविलास का नहीं।
यदि जेब में से पाँच का नोट गुम हो जाये तब समझ आएगा कि ब्रह्म सत्य है कि नोट सत्य है।
केवल वेदान्त के मंत्रो को तोते की तरह बोलने वाला भी शायद नोट की चिंता करेगा।
पांच रूपये के नोट की कोई किंमत होगी- किन्तु उस नोट में आसक्ति का होना बुरा है।
रासलीला के बाद ३४वे अध्याय में सुदर्शन विद्याधार की कथा आती है।
शिवरात्री का पर्व था। नंदबाबा अम्बिका वन की यात्रा पर गए हुए थे। ब्राह्मणों को खूब दान दिया है।
रात्रि के समय सभी ने सरस्वती के किनारे मुकाम किया। नंदबाबा पूजा करके सो गए है।
इतने में वहाँ रहने वाला अजगर नंदबाबा को निगलने लगा।
लोगों ने उसे मारने का खूब प्रयत्न किया पर वह नहीं मरा।फिर, श्रीकृष्णको बुलाया गया।
प्रभु ने आकर अपने चरण से अजगर को स्पर्श किया और वह मर गया
और उसमे से एक देव पुरुष प्रकट हुआ। प्रभु तो जानते थे फिर भी पूछा -आप कौन है?
उस देवपुरुष ने कहा -मै अगले जन्म में सुदर्शन नमक विद्याधर था। मुझे अपनी सुंदरता पर अभिमान था।
कुरूपो को देखकर मुझे हँसी आती थी। मैंने एक बार काले-कुबड़े ऋषि अंगिरा को देखा तो-
अपनी हँसी रोक न सका। ऋषि क्रोध से भड़क उठे और मुझे शाप देते हुआ कहा -
तू मेरी आकृति देखकर हँस रहा है,पर मैंने सत्संग करके अपनी कृति सुधार ली है।
तेरा तन तो उजला है किन्तु मन काला है। मै तुझे शाप देता हूँ कि तू अजगर बनेगा।
अंगिरा ऋषि के शाप से मै अजगर बना और आपके स्पर्श से मै मुक्त हुआ।
शरीर की आकृति प्रारब्ध अनुसार ईश्वर देते है।
“मेरा शरीर सुन्दर है”ऐसी कल्पना में से काम का- अभिमान का जन्म होता है।
शरीर में कौन से सुंदरता है? वह तो रुधिर,मांस, चाम से बना हुआ है।
यदि रास्ते में हड्डी पड़ी हो तो लोग कतराकर निकल जायेंगे। सो शरीर को सुन्दर मत मानो।