जैसे पैसे के लिए पागल हुए बिना पैसा नहीं मिलता है उसी तरह प्रभु को पाने के लिए उनके पीछे पागल बनना पड़ता है। पागल किसी वस्तु के लिए नहीं,प्रभु के लिए बनो।
अक्रूरजी प्रभु में तन्मय हुए है। “मेरे मालिक इस रास्ते से पैदल गए है तो मुझे भी दंडवत करते-करते चलना चाहिए। तभी मेरे पाप जलेंगे और अक्रूरजी दंडवत-प्रणाम करते हुए आगे बढ़ने लगे।
अक्रूरजी “वंदन भक्ति” के आचार्य है।
आज अक्रूरजी की इच्छा अनुसार श्रीकृष्ण गौशाला में गोप-बालकों के साथ खड़े है।
अक्रूरजी को दूर से ही दर्शन हुए है। श्रीकृष्ण का अंग मेघ जैसा श्याम है,आँखे कमल जैसी विशाल है।
दर्शन करते ही अक्रूरजी का गला भर आया,वे एक भी शब्द न बोल सके और
भावावेश से अचेत-से होकर भगवान के चरणों में जा गिरे। श्रीकृष्णको उन्होंने प्रणाम किया।
परमात्मा की आँखे तो सदा-सर्वदा प्रेम से गीली होती है। उन्होंने देखा कि अक्रूरजी अपनी शरण में आये है।
अक्रूरजी चाहते थे कि जब वे प्रणाम करे,उसी समय ठाकुरजी की दृष्टि उन पर पड़े जिससे उनका ह्रदय शुद्ध हो जाये और पाप करने की इच्छा ही न जागे। उनकी यह भी इच्छा थी कि प्रभु उनके सिर पर हाथ रखे।
प्रभुजी ने अक्रूरजी के मस्तक पर अपना वरद हस्त पधराते हुए उनको खड़ा होने को कहा।
अक्रूरजी ने तो सोचा था कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा,तभी वे खड़े होंगे,
किन्तु मुझ जैसे पापी को भला वे चाचा क्यों कहेंगे?
पर आज मेरी इच्छा है जब तक वे मुझे चाचा कहकर नहीं उठायेगे मै यही पड़ा रहूँगा।
भगवान ने अक्रूरजी का मनोभाव जान लिया।
उन्होंने सोचा कि यदि चाचा कहने से अक्रुरजी को सुख मिलता है तो ऐसा कहने में कौन सी आपत्ति है।
जीव जिस भाव से मुझे भजता है,उसी भाव और सम्बन्ध से मै भी उसको भजता हूँ।
मै जीव का पिता भी हूँ और पुत्र भी।
ईश्वर महान है। इसका कारण यह है कि वे दुराग्रही नहीं अनाग्रही है। जीव ही दुराग्रही है।
जीव को कुछ सन्मान या संपत्ति मिलते ही वह दुराग्रही बन जाता है।