कन्हैया-निष्ठुर हुए बिना आगे की लीला नहीं हो सकती। तुम मेरे माता-पिता का ख्याल रखना।
नंदबाबाको वंदन कर उन्हें गाड़े में बिठाया है। व्रजवासी का प्रेम देखकर मथुरा के यादवों को आश्चर्य हुआ है।
गोकुल के श्रीकृष्ण अनुपम है।
उनका स्वरुप दिव्य है और आनंद अलौकिक,किन्तु तत्वतः गोकुल और मथुरा में कृष्ण एक ही है।
गयारह वर्ष के बलराम और श्रीकृष्ण को वसुदेव ने जनोई दी है। गंगाचार्य ने गायत्री मन्त्र की दीक्षा दी है।
श्रीकृष्ण और बलराम ब्रह्मचारी हुए है।
यह संसार मायामय है। जो संसार में फँसा है उसे सत्संग और गुरु की जरुरत पड़ती है।
गुरु सेवा का आदर्श स्थापित करने के हेतु -
श्रीकृष्ण श्रिप्रा नदी के किनारे उज्जैन क्षेत्र में सांदीपनि ऋषि के आश्रम में विद्या प्राप्त करने गए।
सुपात्र संत की सेवा किये बिना ईश्वर की कृपा प्राप्त नहीं हो सकती।
किसी तपस्वी पवित्र संत की तन,मन से सेवा करोगे तो उनके अंतर से आशीर्वाद मिलेंगे।
सेवा द्वारा प्राप्त विद्या सफल होती है।
श्रीकृष्ण गुरु के लिए जंगल में से लकड़ी लाते थे,औए पानी भी भरते थे।
श्रीकृष्ण ने सांदीपनि ऋषि के आश्रम में अध्यात्म विद्या प्राप्त की है,पैसे कमाने की विद्या नहीं।
आजकल पैसा कमाने की विद्या पढाई जाती है। सांसारिक बंधनो से मुक्त कराने वाली नहीं।
विनय,विवेक,संयम और आत्मस्वरूप का ज्ञान आजकल कोई नहीं देता।
आजकल ज्ञान बहुत बढ़ गया है पर उसका उपयोग छल -कपट में किया जाता है।
श्रीकृष्ण जब गुरुकल में पढ़ने आये तब एक गरीब ब्राह्मण पुत्र के साथ श्रीकृष्ण की मैत्री हो गयी।
वह सौराष्ट्र का था और उसका नाम सुदामा था।
सुदामा का अर्थ है इन्द्रियों का दमन,निग्रह करने वाला। इन्द्रियों के निग्रह के बिना -
न तो विद्या मिलती है और न फलती है। विद्यार्थी के लिए इन्द्रियदमन बड़ा आवश्यक है।
ऐसी सुचना देने के लिए ही शायद सुदामाके सिवाय अन्य किसी सहपाठी का निर्देश भागवत में नहीं है।
सुदामा के साथ मैत्री कनरे वाला ही सरस्वती की उपासना कर सकता है।
सुदामा उस संयमी व्यक्ति का प्रतिक है ,जो परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है।
जो आत्मतत्व का संदीपन करा सके,वही सांदीपनि है,वही गुरु है। सद्गुरु बहार से कुछ नहीं लाते।
वे तो जो भीतर है उसी को जागृत करते है। ज्ञानमार्ग तो "प्राप्त की ही प्राप्ति" कराता है।