राधाजी-उद्धव,तू कौन सा संदेशा लेकर आया है? मेरे श्रीकृष्ण तो यही है। मै वियोगिनी नहीं हूँ।
अन्तरकी संयोगिता राधा श्रीकृष्णके चिंतन में लीन हो गयी।
उद्धवजी ने फिर कहा कि -मै मथुरा से आया हूँ। श्रीकृष्ण यहाँ आनेवाले है।
राधाजी -क्या तुम मेरे स्वामी का सन्देश लेकर आये हो-किन्तु उस सन्देश से मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।
विरहणी के दुःख को कौन समझ पायेगा? मुझे शान्ति दे सके ऐसा कोई शास्त्र,मंत्र या ज्ञान,इस जगत में नहीं है।
मै तो प्रतिक्षण श्रीकृष्णका भजन,ध्यान और दर्शन कर रही हूँ।
राधाजीकी विरहिनी दशा देखकर सभी गोपियाँ,वृक्ष-वेलियां,फल-कलियाँ,पशु-पक्षी रोने लगे।
राधाजी के दिव्य प्रेम ने उद्धवजी को भी रुला दिया।
राधाजी के मुख से कमल की खुशबू आ रही है। उससे आकर्षित होकर एक भ्रमर वहाँ मंडराने लगा।
राधाजी उसे दूर करने लगी। उसिस समय उद्धवजी ने फिर से उन्हें वंदन किया।
राधाजी ने भ्रमर से कहा -तू कपटी है,कपटी का मित्र है (मानो उद्धवजी से कहती हो)
कपटी का बंधु है,यहाँ पर क्यों आया है?
उद्धवजी बोले- नहीं,नहीं,आप श्रीकृष्ण को कपटी मत कहो। वे तो दया के सागर है। वे आपको नहीं भूले है।
वे आपको बार-बार याद करते है।
राधाजी -उद्धवजी,तुम उन्हें अच्छी तरह पहचान नहीं पाए हो।
यदि उनके मूल स्वरुप का ज्ञान और अनुभव तुम्हे हुआ होता तो तुमने उनको छोड़ा नहीं होता।
तुम्हे ज्ञान और शास्त्र की बड़ी-बड़ी बातें करके उन्होंने छला है।
तुम्हारे शुद्ध ज्ञान से उस शुद्ध प्रेम की भूमि को क्या लेना देना है?
योग चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है। प्रेम राज्य में एक ही प्रियतम का शासन होता है।
अपना तो ज्ञान शास्त्र,कर्म,धर्म सब कुछ श्रीकृष्ण ही है। अपनी सांस तक श्रीकृष्णमय है।
तो फिर तुम्हारे ज्ञान को हम कहाँ स्थान देंगे?
इस प्रेम की भूमि में तुम प्रेम की बात कर सकते हो,शुष्क ज्ञान की नहीं।
उद्धवजी,मेरे श्रीकृष्ण केवल मथुरा में नहीं,हर कही बसते है। मुझे तो वे चारों ओर दिखाई दे रहे है।
वे तो हमारे रोम-रोम में बसे हुए है। वे यहाँ के कण-कण में,हमारे मन में,हमारे ह्रदय में है।
उद्धव, तू कैसा है वह मै जानती हूँ। पर तुझे मेरे प्रभु ने भेजा है इसलिए तेरा स्वागत करना हमारा फर्ज है।
पर हम तो गाँव की अनपढ़ स्त्रियां है। तेरे जैसे ज्ञानी का क्या स्वागत करे?