मथुरामें,श्रीकृष्ण से साथ बाते करते समय-उन्होंने गोपियों को अनपढ़ कहा था।
उद्धवजी ने कहा -मुझे क्षमा करो,जहाँ गोपियाँ वहाँ कृष्ण है। राधा और श्रीकृष्ण अभिन्न है।
मैंने तुम्हारा अपमान करके अपराध किया था। तब मै अज्ञानी था। मेरी बुद्धि ज्ञान के अभिमान से -
कुंठित और कठोर हो गई है। ज्ञान से मुझे जड़,शुष्क बना दिया है। तुम्हारी प्रेमलक्षणा भक्ति का मुझे दान करो। राधाजी ने उद्धवजी की इच्छा पूर्ण की। उनको प्रेमलक्षणा भक्ति का ज्ञान मिला।
राधाजी ने बांसुरी हाथ में ली। बाँसुरी में से राधे-गोविंद,राधे-गोविंद,की मधुर ध्वनि निकलने लगी।
गोपियाँ भी कृष्ण-कीर्तन में लीन हो गयी।
गोपियोंकी भाव विह्वलता को देखकर कृष्ण भी -जैसे मथुरा से दौड़ते हुए आ पहुँचे।
सखियों की मंडली में राधिकाजी के साथ विराजमान हुए।
गोपियों और उद्धवजी ने राधाकृष्ण के मनोहर स्वरुप का दर्शन किया।
उन्हें अब यह भी ज्ञान नहीं था कि वे कौन है,कहाँ है,और कहाँ से और क्यों आये है।
उद्धवजी का ज्ञानाभिमान निर्मूल हो गया।
गोपियों के चरणमें वंदन करते हैऔर उनकी चरणरज अपने मस्तक पर चढ़ाई।
उन्हें गोकुल छोड़ने की इच्छा नहीं होती। उद्धव -गये थे गुरू बनने,पर गोपियों के चेले बनकर वापस लौटे थे ।
उद्धवजी ने मथुरा लौटने की आज्ञा मांगी तब राधाजी ने कहा -उद्धवजी- कृष्ण से कहना कि वे शीघ्र ही यहाँ आकर गोकुल को सनाथ करे। कृष्ण के लिए कुछ भेंट भी उन्होंने दी।
इस समय यशोदाजी और नंदजी भी वहाँ आये है। उन्होंने संदेशा भेजा -
(यह दो श्लोक भागवत का हार्द है,डोंगरेजी महाराज को यह दो श्लोक प्रिय है-१०--६६-६७)
इन दो श्लोको में समग्र भागवत का ह्रदय समाहित है।
विषयों के प्रति वैराग्य और कृष्ण के प्रति प्रीति उत्पन्न करने वाले ये दो श्लोक भागवत की आत्मा है।
(इसका अनुवाद कुछ ऐसा है )
"उद्धवजी,हम तो यही चाहते है कि अपनी सभी वृत्तियाँ और संकल्प श्रीकृष्ण के चरण कमलों के आश्रित रहे और उनकी सेवा में ही लगे रहे। अपनी वाणी उन्ही का नामोच्चार करती रहे। अपना शरीर उन्ही की सेवा करता रहे। हमे मोक्ष की इच्छा नहीं है। अपने कर्म और प्रभु की इच्छा के अनुसार हमे जिस किसी योनि में जन्म मिले,
हम शुभाचरण,दानकर्म करते रहे,ईश्वर के प्रति हमारी प्रीति उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रहे। "