यशोदाजी कहने लगी -उद्धवजी,कन्हैया से कहना कि उसे अगर इच्छा हो तो यहाँ आये,केवल हमारे लिए आने का कष्ट न करे। यदि उसे वही सुख आनंद मिलता हो तो वही रहे। हमारे वियोगसे यदि उसे सुख होता हो तो -
वह मथुरा से यहाँ आने का कष्ट न करे। हम तो यहाँ उसके विरह में जलने और आँसू बहाने में भी सुख ही मानेंगे। हमारे सुख के लिए उसे श्रम करने की कोई आवश्यकता नही है। वह जहाँ भी रहे,सुखी रहे।
इतना कहते-कहते यशोदाजी की आँखों में आँसू भर आये।
यह पुष्टि-भक्ति है। पुष्टि-भक्ति में स्व-सुख का विचार नहीं आता।
पुष्टिभक्त अपने सुख का नहीं,अपने आराध्य के सुख का ही विचार करती है।
उद्धवजीने सबको धीरज देते हुए कहा - मै कृष्ण को लेकर जल्दी वापस आऊँगा। आप चिन्ता मत करो।
उद्धवजी का रथ मथुरा की दिशा में बढ़ने लगा। उनका मन भी विचारों की गहराइयों में डूब गया।
मै आज तक मानता था कि कृष्ण करूणानिधि,कृपासागर है किन्तु लगता है कि वे बड़े कठोर (निष्ठुर) है।
इन भोले व्रजवासियों को विरहाग्नि में जला रहे है। मै उनको उपालंभ दूँगा।
उद्धवजी मथुरा में श्रीकृष्ण के पास आये है।
अन्तर्यामी श्रीकृष्ण तो जानते ही थे कि उध्दव क्या कहने जा रहे है। सो वह कहने लगे -
उद्धव,जब तुम मथुरा में थे तब मेरी प्रशंसा करते थे और अब गोकुल हो आये सो गोपियों की प्रशंसा करने लगे।
मै निष्ठुर नहीं हूँ।
भगवान ने उद्धवजी के मस्तक पर अपना वर्द हस्त पधराया।
उद्धवजी समाधिस्थ होकर देखने लगे कि यह सब तो कृष्ण की लीला मात्र है।
वे तो मथुरा में भी है और गोकुल में भी। भगवान ने अपनी सभी गोकुललीलाओं का दर्शन कराया।
एक स्वरुप मथुरा में दिखाई दिया तो दूसरा गोकुल में।
श्रीकृष्ण कहते है कि-
"चाहे मै मथुरा में दिखाई दूँ किन्तु होता तो हूँ गोपियों के पास ही। मै गोपियों से अभिन्न हूँ। "
गोपी-कृष्ण एक ही है।
भगवान की गोपी-प्रेमलीला की कथा दशम स्कन्ध के अड़तालीसवें अध्याय पर समाप्त होती है।
इसके बाद-भागवत में अब गोपियों की बात नहीं आती।
अब राजस-लीला शुरु होती है। आगे की लीला राजस भक्तों के मन के निरोध करने के लिए है।
कृष्ण कथा सभी प्रकार के जीवों को आनंद देती है।
श्रीकृष्ण सभी जीवों को अपनी ओर आकर्षित करके परमानन्द का दान करते है।
स्कन्ध-१०-दशम स्कन्ध- पूर्वार्ध-समाप्त